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________________ १७० [ श्रीवीतरागस्तोत्रे व्यक्तमेव तव वैराग्यमित्येवं कुत्र कस्मिन्नवस्थान्तरे विरागवान्नासि ?, सर्वत्र विरक्त एवेति भावः। ननु परपरिगृहीतेष्वपि दैवतेष्वस्त्येव वैराग्यं किमधिकं वीतरागस्येति चेदाहदुःखगर्भे मोहगर्भे वैराग्ये निष्ठिताः परे। ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं त्वय्येकायनतां गतम् ॥७॥ हे भगवन् ! परतीथिको दुःखगर्भित अने मोहगर्भित वैराग्यमां स्थित थयेला छे, परन्तु ज्ञानगभित वैराग्य तो केवळ आपनामां ज एकीभावने पामेल छे. (७) आ श्लोकवडे आचार्यश्री प्रभुमा एकीभावने पामेला ज्ञानगर्भित वैराग्यने वर्णवे छे. दुःखगर्भित वैराग्य, मोहगर्भित वैराग्य अने ज्ञानगर्भित वैराग्य आ प्रमाणे छे:-धाम, धरा, धन अने यौवना आदिनी विरह थवाथी अथवा प्रियभोग-विषयोनी प्राप्ति न थवाथी संसारथी कंटाळी, संसारने त्याग करे अने कहे के:-"संसार असार छे." (पेला शियाळीयानी जेम कहे के " द्राक्ष खाटी छे." The grapes are sour. ) पुनः संसारनी वस्तुनो इच्छित वस्तुनो योग थवा प्रयत्न अने झंखना करे अने प्राप्त थये छते जे वैराग्यनो विनिपात थाय, ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003020
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorChandraprabhsagar
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1949
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size10 MB
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