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________________ ६४] [ तृतीय प्रकाश प्रबन्धचिन्तामणि ८. सिद्धराजादि प्रबन्ध । मूलराज कुमारकी प्रजावत्सलताका प्रबन्ध । ७९) इसके बाद, किसी समय, गूर्जर देशमें अनावृष्टिके कारण जव वर्षा नहीं हुई तो वि शो प क (१) दण्डा हि देशके प्रामोंके कुटुम्बी (कुनबी=किसान) जनोंके राजाका कर (भाग) देनेमें असमर्थ हो जाने पर राजनियुक्त व्यापारियों ( कर्मचारियों) ने उस देशके सभी लोगोंको, उनके धन और जनके साथ, पत्तन में ले आकर राजा भीम के सामने निवेदित किया । एक दिन सबेरे श्री मूल राज कुमारने टहलते टहलते देखा कि राज्यके आदमी फसलका दाण ( कर ) वसूल करनेके लिये सभी लोगोंको व्याकुल कर रहे हैं । अपने निकटके आदमियोंसे उस सारे वृत्तान्तके जानने पर उसकी आँखोंमें करुणाके कुछ आँसू आ गये। बादमें घुड़दौड़के मैदानमें उसने अपनी अनुपम कला दिखा कर राजाको सन्तुष्ट किया। उसपर राजाने आदेश दिया कि ' वर माँगो' । उसने [ राजाको ] सूचित किया कि-' यह वरदान अभी भाण्डागार ही में रखा रहे। राजाने जब कहा कि- अभी क्यों नहीं कुछ मांग लेते ? ' तो उसने कहा कि-' प्राप्ति होनेका कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता-इसलिये । ' राजाके उसका अनुरोध पूर्वक खुलासा पूछने पर, उन कुटुंबियोंका लगान माफ कर देनेका उसने वर माँगा। तब हर्षके कारण जिसकी आँखें आँसुओंसे गद्गद् हो गई हैं ऐसे उस राजाने ' ऐसा ही हो' कह कर ' और भी कुछ माँगो' यह कहा । १२८. केवल अपना ही भरण-पोषण करनेवाले क्षुद्र पुरुष तो हजारों हैं पर जिसका परार्थ ही स्वार्थ है ऐसा सज्जनोंका अगुआ पुरुष तो [ हजारोंमें ] कोई एक होता है । वाडव अग्नि समुद्रको अपने दुष्यूरणीय पेटको भरनेके लिये पीता है पर बादल तो पीता है ग्रीष्मके तापसे तपे हुए जगतका सन्ताप दूर करनेके लिये। इस प्रकार इस काव्यार्थके भावको समझ कर, अधिक लोभका निग्रह करके फिर और कुछ नहीं माँगा । इस तरह मानोन्नत हो कर वह अपने स्थान पर गया। उसके द्वारा, इस तरह बन्धन-विमुक्त बने हुए वे लोग देवताकी भाँति उसकी पूजा और स्तुति करने लगे। दैववशात् तीसरे ही दिन, उनके सन्तोषकी दृष्टि से स्तुत होता हुआ [ वह राजकुमार ] मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग लोकको चला गया। राजा, राजपुरुष और बन्धन-विमुक्त वे सब प्रजाजन उस शोकसागरमें डूब गये जिन्हें [ अन्यान्य ] समझदार लोगोंने, अनेक प्रकारके बोधवचन सुना सुना कर, कितने ही दिनोंके बाद उनको शोक-विमुक्त किया। ___ इसके बाद, दूसरे साल, यथेष्ट वृष्टि होनेके कारण खूब फसल पैदा हुई । इससे वे किसान लोग अत्यन्त हर्षित हो कर, उस वर्षका और बीते हुए वर्षका भी, लगान देनेको तत्पर हुए पर राजाने उसे ग्रहण नहीं किया । तब उन्होंने एक उत्तर-सभाका सम्मेलन किया । सभा और सभ्योंका लक्षण यह है १२९. वह सभा ही नहीं जिसमें वृद्ध न हों, और वे वृद्ध नहीं जो धर्मका कथन नहीं करते । वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य नहीं और वह सत्य नहीं है जो कल्पितसे अनुविद्ध हो । ऐसा [ शास्त्र ] निर्णय कर सभ्योंने राजासे गत साल और उस सालका लगान ग्रहण करवाया। राजाने उस द्रव्यसे तथा खजानेमेंसे और कुछ द्रव्य मिला कर मूल राज कुमारके कल्याणार्थ नया त्रिपुरुष प्रासाद [ नामक शिवमन्दिर ] बनवाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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