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________________ १०] प्रबन्धचिन्तामणि [प्रथम प्रकाश मैं अब प्रजाको पीड़ा नहीं पहुँचाऊंगा । ऐसा निश्चय करके राजा दूसरी रातको प्यासका बहाना करके परीक्षाके लिये फिर उसके घर गया । वह शीघ्र ही ईखका रस ले आई और राजाको दिया जिसे पीकर वह [ अपने महलमें आया और ] शय्यापर सो गया। भट्ट मात्र के पूंछनेपर वेश्याने भी [ उसी तरह ] निवेदन किया (बताया) कि-[ आज ] राजाका मन प्रजापर प्रसन्न है । राजाने भी रातवाली अपनी बात बताकर, परके चित्तको इस प्रकार पहचान लेनेके कारण, सन्तुष्ट होकर उस वृद्ध वेश्याको [ पारितोषिकके ढंगपर ] हार दिया । - इस प्रकार यह राजाके मनके अनुसार होनेवाले पृथ्वीरसका प्रबंध है। ] १०) इसके बाद एक बार श्री सिद्ध से न सूरिने, यह पूछे जानेपर कि-' मुझ (विक्रम ) के समान क्या कोई [ और भी ] जैन राजा होगा ? ' कहा ८. एक हजार एक सौ निन्यानवे वर्ष पूर्ण होनेपर तुझ विक्र मा दित्य के समान एक कु मा र [पाल] नामक राजा होगा। ११) इसके बाद, एक दूसरे अवसरपर, जब राजा जगत्को ऋणमुक्त कर रहा था, अपने औदार्य गुणका अहंकार करते हुए उसने सोचा कि-'प्रातःकाल एक कीर्ति-स्तम्भ बनवाऊँगा । [ उसी दिन ] रातको वीरचर्या निमित्त चतुष्पथमें घूम रहा था कि दो सांद लड़ते हुए सामने आये । उनसे डर कर राजा किसी दारिद्र्यग्रस्त ब्राह्मणकी पुरानी गोशालाके एक खंभेपर चढ़ गया। वे दोनों सांढ़ भी सींगसे वारंवार उसी खंभेपर प्रहार करने लगे। इसी बीच उस ब्राह्मणने अकस्मात् जग कर, आकाशमें शुक्र और बृहस्पतिसे अवरुद्ध चन्द्रमण्डलको देखकर, गृहिणीको उठाया और चन्द्रमण्डलसे सूचित होनेवाले राजाका प्राणभय जान कर कहा किउसकी शान्तिके लिये हवनीय द्रव्यसे हवन करूंगा । राजा कान लगा कर यह बात सुन रहा था । गृहिणीने उससे कहा-'इस राजाने सारी पृथ्वीको तो ऋणमुक्त किया है, लेकिन मेरी सात कन्याओंके विवाहार्थ तो कुछ द्रव्य नहीं दिया । तो फिर शान्तिकर्म करके उसे व्यसन (संकट ) से मुक्त करनेमें क्या लाभ है ?' इस प्रकार उसकी बात सुन कर वह सर्वथा गर्वसे रहित हुआ और उस संकटसे छूटकर और उस कीर्तिस्तम्भकी बातको भूलकर चिरकाल तक राज्य करता रहा । -इस प्रकार यह विक्रमादित्य की निर्गताका प्रबन्ध है ॥६॥ [इसके बाद एक दूसरी रातको एक धोबिनसे राजाने पूछा कि-'वस्त्रोंमें बालू क्यों लगी रहती है और चे गन्दे क्यों हैं ? ' उसने कहा [३] हे महाराज, यह जो दक्षिण समुद्ररूपी दक्षिण नायककी वधू, रेवाकी प्रतिस्पर्धिनी, गोदावरी नामक प्रसिद्ध नदी, जिसका तट गोविन्दके प्रिय गोकुलोंसे आकुल है, उसका जल, वर्षाकाल बीत जानेपर भी आपकी सेनाके हाथियोंके दाँतरूपी मूसलसे प्रक्षोभित धूलिके कारण, स्वच्छ नहीं हुआ। [४] उस राजाओंके राजाने धोबिनकी वह बात सुन कर भूक्षेप मात्रमें अपने शरीरके आभूषणोंके साथ एक लाख [ का दान ] दे दिया। [५] राजा विक्र मा दित्य ने चोर, मागध ( भाट ), ब्राह्मण और धोबिनसे कविता सुन कर [ रातके ] चारों पहर दान दिया।] -' इस प्रकार यहांपर विक्रमके संबंधके [ और भी ] विविध प्रबंध, परंपरा द्वारा जानलेने चाहिए । १इस पंक्तिके लेखसे मेरुतुंग सू रि यह सूचित करना चाहते हैं कि विक्रम के विषयके जैसे ये प्रबन्ध हमने यहां लिखे हैं, वैसे और भी अनेक प्रबन्ध हैं, जिनका ज्ञान अन्यान्य ग्रंथों-प्रबन्धों द्वारा प्राप्त करना चाहिए। हमने तो यहां पर कुछ दिग्दर्शन करानेके लिये ही ये थोडेसे प्रबन्ध लिख दिये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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