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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। श्री मेरुतुङ्गाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामाण नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक-प्रबन्ध-संग्रहात्मक संस्कृत " ग्रन्थका यह हिन्दी भाषान्तर, आज सहर्ष हम हिन्दी भाषाभाषियोंकी सेवामें उपस्थित करते हैं। १. प्रबन्धचिन्तामणिका महत्त्व और प्रामाण्य । गुजरातके प्राचीन इतिहासकी विशिष्ट श्रुति और स्मृतिके आधारभूत जितने भी प्रबन्धात्मक और चरित्रात्मक ग्रन्थ-निबन्ध इत्यादि प्राकृत, संस्कृत या प्राचीन देशी भाषामें रचे हुए उपलब्ध होते हैं, उन सबमें इस प्रबन्धचिन्तामणिका स्थान सबसे विशिष्ट और अधिक महत्त्वका है। उस प्राचीन समयसे ही- जबसे इसकी रचना हुई है तबसे ही- इस ग्रन्थकी प्रतिष्ठा विद्वानोंमें खूब अच्छी तरह हो गई थी और जिनको कुछ ऐतिहासिक वृत्तान्तोंके जाननेकी उत्कण्ठा होती.थी वे प्रायः इसका वाचन और अध्ययन किया करते थे। पिछले कई ग्रन्थकारोंने इस प्रन्थका अपनी रचनाओंमें अच्छा उपयोग भी किया है, और आदरपूर्वक इसका उल्लेख भी किया है । इन ग्रन्थकारोंमें, सबसे पहले शायद जिनप्रभ सूरि हैं जो प्रायः इनके समकालीन थे। यद्यपि उन्होंने इनका कहीं नामोल्लेख नहीं किया है तथापि अपने महत्त्वके ग्रन्थ, विविधतीर्थकल्पमें, जैसा कि हमने उसकी प्रस्तावनामें (पृ. ३, पंक्ति ४-५ पर ) सूचित किया है, इस ग्रन्थका सर्व प्रथम उपयोग किया है। इसके बाद, इन जिनप्रभ सूरिके उत्तरावस्थाके समकालीन और इन्हींके पास कुछ गहन शास्त्रोंका अध्ययन भी करनेवाले मलधारी राजशेखर सूरिने, अपने प्रबन्धकोषमें, इस ग्रन्थका जैसा उपयोग किया है, उसका परिचय हमने, प्रबन्धकोषकी प्रस्तावनामें, 'प्रबन्ध. चिन्तामणि और प्रबन्धकोष' इस शीर्षकके नीचे ( पृ० २, काण्डिका ४ में ) कराया है। राजशेखर सूरिने तो प्रकट रूपसे इस ग्रन्थका नामोल्लेख भी किया है। हेमचन्द्र सूरिके वृत्तान्तमें उन्होंने कहा है कि-' इन आचार्यके जीवनके सम्बन्धमें जो जो बातें प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थमें लिखी गई हैं, उनका वर्णन हम यहां पर नहीं करना चाहते । ऐसा करना चर्वित-चर्वण मात्र होगा।' इत्यादि । ( देखो, प्र० को० पृ० ४७, प्रकरण ५७, पंक्ति १२-१६). संवत् १४२२ में समाप्त होनेवाले जयसिंह-सूरि-रचित कुमारपालचरितमें, तथा संवत् १४६४ के पूर्वमें लिखे गये कुमारपालप्रबोधप्रबन्धमें (-यह ग्रन्थ शीघ्र ही प्रस्तुत ग्रन्थमालामें प्रकाशित होनेवाला है ); और संवत् १४९२ में संकलित, जिनमण्डनोपाध्यायके कुमारपालप्रबन्धमें, इस प्रन्थका खूब उपयोग किया गया है । सं० १४९७ में परिपूर्ण होनेवाले जिनहर्षगणीकृत वस्तुपालचरित्रमें भी इसका यथेष्ट आधार लिया गया है । सं० १५०० के बाद, प्रायः १०-१५ वर्षके बीचमें जिसकी रचना हुई जान पड़ती है, उस उपदेशतरंगिणी नामक ग्रन्थमें तो इस ग्रन्थमेंसे प्रायः सैंकडों ही पद्य उद्धृत किये गये हैं और इसके अने प्रबन्धोंका बहुत कुछ सार लिया गया है। एक जगह तो ग्रन्थकारने इसका प्रकट नामनिर्देश भी कर दिया है और लिख दिया है कि-' सर्वेऽपि प्रबन्धाः प्रबन्धचिन्तामणितो ज्ञेयाः।' (बनारस आवृत्ति, पृ० ५८ ). इसके बादके श्राद्धविधि, उपदेशसप्ततिका आदि १६ वीं शताब्दीमें बने हुए ग्रन्थोंमें, उनके कर्ताओंने भी अपने अपने ग्रन्थोंमें इस ग्रन्थका जहां-तहां आधार लिया है और इसमें वर्णित ऐतिहासिक उल्लेखोंका सार उद्धृत किया है। १७ वीं सदीमें, अकबरके समयमें होनेवाले हीरविजय सूरिके प्रसिद्ध सहपाठी और अनुगामी विद्वान् महोपाध्याय धर्मसागर गणीने अपनी सुप्रचलित तपागच्छपट्टावलि और अन्य ग्रन्थोंमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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