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________________ प्रबन्धचिन्तामणि [ तृतीय प्रकाश दर्शनके लिये उत्कंठित हो कर उसके निवासस्थानमें गये और राजाको प्रणामादि करके उसके अनुपम ऐसे पलंग पर ही बैठ गये । आसन देनेके लिये नियुक्त नोकरोंने उनको अलग आसन पर बैठनेको कहा तो वे लोग अपने हाथोंसे उस पलंगकी कोमल शय्याका स्पर्श करते हुए [ भोले भावसे ] 'हम लोग यहीं बड़े आरामसे बैठे हैं '-ऐसा कहते हुए वहीं बैठ रहे। [ यह देख कर] राजाका मुख मुस्कुराहटसे कमलकी भाँति खिल उठा। इस प्रकार उञ्झावासी ग्रामीणोंका यह प्रबंध समाप्त हुआ। झाला सामंत माँगूकी शूरताका वर्णन । ११७) किसी समय, झा ला जाति का मा ङ्गु नामक क्षत्रिय श्री सिद्ध राज की सेवाके लिये सभामें आया करता था। वह रोज ही दो पराची (लोहेकी भारी कुसी) जमीनमें गाड़ कर बैठता और फिर उन दोनोंको उखाड़ कर ऊठता । उसके भोजनमें घीसे भरा एक कुतुप ( कुडवा-घी तेल भरनेका घडेके जैसा चमडेका भाजन ) खर्च होता था । घी लगी हुई उसकी दादीके धोने पर भी उसमें सोलहवाँ हिस्सा घी बच जाता था। किसी समय उसके शरीरमें रोग होने पर, पथ्यके लिये यवागू ( जौकी पतली मॉड ) खानेको वैद्यने कहा तो, वह ५ माणक (करीब ४ शेर कच्चे नाप जितनी) खा गया । इस पर वैद्यने डॉट कर कहा कि आधा भोजन कर लेने पर बीचमें अमृतोदक क्यों नहीं पिया ! ' क्यों कि कहा है कि १६८. जब तक सूर्योदय न हो जाय तब तक एक हजार घड़ा भी पानी पिया जा सकता है, पर ___ जब सूर्योदय हो जाता है तो फिर एक बूंद भी एक घड़ेके बराबर हो जाता है। रातकी पिछली चार घड़ीमें, सूर्योदय न होने तक, जो जल पिया जाता है - जो जल प्रयोग किया जाता है - उसे वज्रोदक कहते हैं ( वह अमृतोदक भी कहाता है ) । सूर्योदय हो जाने पर विना अन्न खाये, जो पानी पिया जाता है, वह विष है। इस लिये एक बूंद भी वह पानी सौ घड़ोंके बराबर हो जाता है। आधा भोजन करने पर, बीचमें जो जल पिया जाता है वह अमृत कहलाता है, और भोजनान्तमें तत्काल पिया जाता हुआ जल छत्र या छत्रोदक कहलाता है। उस माँगूने, यह सुन कर कहा कि- 'यदि ऐसा है, तो पहले जो अन्न खाया है उसे आधा आहार कल्पना कर लिया जाय, और इस समय अब पानी पी कर फिर उतना ही आहार और कर लूँ !' ऐसा कह कर वह फिर खानेकी तैयारी करने लगा, लेकिन वैद्यने उसे वैसा करनेसे रोक दिया। किसी समय राजाने उसके निःशस्त्र रहनेका कारण पूछा । उसने कहा कि- 'मेरा हथियार तो समयोचित होता है'। फिर एक बार उसके स्नान करते समय, किसी महावत द्वारा चलाये हुए हाथीको अपने ऊपर आता देख, नजदीकमें रहे हुए कुत्तेको पकड कर उसकी सूंड पर फेंक मारा । मर्मस्थान पर चोट लगनेके कारण निपीडित ऐसे उस हाथी को खींचा, तो उसके अतुल बलसे वह हाथी भीतर-ही-भीतर नसोंमेंसे टूट गया और उस महावतके नीचे उतरने पर, वह जमीन पर गिरते ही प्राणोंसे मुक्त हो गया। गूर्ज र देश पर आयी हुई म्लेच्छोंकी सेनाको देख कर राजाके पलायन कर जाने पर, वह अपनी इच्छासे उस सेनाका उच्छेद करता हुआ, युद्धमें जिस स्थान पर मारा गया, उस जगहकी, पत्तन में अब भी 'माङ्गुस्थण्डिल' के नामसे प्रसिद्धि चल आ रही है। इस प्रकार यह माँगू प्रबंध समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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