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________________ द्वितीय खण्ड ऐसे होते हैं जिनके मानस परोपदेशादि बाह्य निमित्त के संयोग से जागरित हो कर उसे प्राप्त करते हैं । सम्यक्त्व की व्यावहारिक परिभाषा इस प्रकार की गई है “या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मं च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥" अर्थात् देव में शुद्ध प्रकार की देवबुद्धि, गुरु में शुद्ध प्रकार की गुरुबुद्धि और धर्म में शुद्ध प्रकार की धर्मबुद्धि होना-इसका नाम सम्यक्त्व है। यहाँ पर देव गुरु-धर्म तत्त्व भी तनिक देख लें । देवतत्त्व : देव कहो अथवा परमात्मा कहो, एक ही बात है । परमात्मा अर्थात् ईश्वर का लक्षण पहले कहा जा चुका है । श्री हेमचन्द्राचार्य देव का वर्णनलक्षण इस प्रकार करते हैं । "सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः२ ॥" अर्थात् सर्वज्ञ, राग-द्वेषादि समस्त दोषों से निर्मुक्त, त्रैलोक्यपूजित और यथास्थित तत्त्वों के उपदेशक को 'देव' कहते हैं । गुरुतत्त्व : "महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥" अर्थात् अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों के धारक, धैर्य गुण से विभूषित, १. आ. हेमचन्द्र का योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लोक २. २-३ आ. हेमचन्द्र का योगशास्त्र, प्रकाश २. श्लोक ४, ८. ४. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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