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________________ द्वितीय खण्ड ५७ का आदेश है । इसी प्रकार साधारण कक्षा के असत्य आदि, जिनका निषेध ऊपर कहे हुए स्थूल मृषावादविरमण आदि व्रतों में नहीं आता, उनका भी निरर्थक आचरण न करने का इस व्रत का आदेश है । दूसरे को दु:खकारक हँसी-मजाक, निन्दा चुगली करने का इस व्रत में निषेध हैं । मोहवर्धक खेलतमाशें देखना आदि प्रमादाचरणों का यथाशक्ति त्याग इस व्रत में आ जाता है । परन्तु वायु सेवन के लिये बाहर घूमने जाना तथा आरोग्य के लिये उपकारक योग्य व्यायाम आदि प्रवृत्तियाँ, योग्य भोजन - पान की भाँति शरीर एवं मन के लिये उपकारक तथा स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होने से, अनर्थदण्ड में नहीं आती । सफाई - स्वच्छता रखना और बीमारी में योग्य चिकित्सा कराना उसका तथा निष्पाप मनोविनोद एवं आमोदप्रमोद के लिये योग्य मर्यादा में और उचित प्रमाण में यदि कोई कार्य किया जाय तो उसका समावेश अनर्थदण्ड में नहीं होता । गन्दगी करके अथवा स्वयं गन्दा रहकर निरर्थक जीवोत्पत्ति बढ़ाना वस्तुतः जीवहिंसा का मार्ग ही खोल देना है । इस स्थान पर यह सूचित कर देना उचित प्रतीत होता है कि शाकाहार से जीवननिर्वाह हो सकने पर भी स्वाद के लिये अथवा शरीर की पुष्टि के लिये मांसाहार करना न केवल अनर्थदण्ड ही है, अपितु उसका समावेश संकल्पी - हिंसा में होता है जो कि गृहस्थ के लिये सर्वथा वर्ज्य ही है । ९. सामायिक व्रत : राग-द्वेषरहित शान्त स्थिति में दो घड़ी अर्थात ४८ मिनट तक एक आसन पर बैठे रहने का नाम 'सामायिक' है । इतने समय में आत्म-तत्त्व की विचारणा, जीवन - शोधन का पर्यालोचन, जीवनविकासक धर्मशास्त्रों का परिशीलन, आध्यात्मिक स्वाध्याय अथवा परमात्मा का प्रणिधान, जो अपने को पसन्द हो, किया जाता है । १०. देशावकाशिक व्रत : छठे व्रत में ग्रहण किए गए दिशा के नियम का एक दिन के लिये अथवा अधिक समय के लिये संक्षेप करना और इसी भाँति दूसरे व्रतों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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