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________________ द्वितीय खण्ड को ध्यान में रखने की है । यह कभी भूलना नहीं चाहिए कि विश्वासघात, झूठी सलाह तथा झूठा दोषारोपण महापाप है। थोड़े में, मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि अर्थोपार्जन के उपायों का रहस्य न्याय (नैतिकता) में है । इसी सुख-शान्ति, मानसिक स्वास्थ्य तथा परलोकहित का मूल रहा हुआ है । ३. स्थूल अदत्तादानविरमण : __ सूक्ष्म भी चोरी न करने के नियम का पालन न कर सकनेवाले गृहस्थ के लिये सूक्ष्म चोरी के त्याग का यह व्रत' है । चुराने की बुद्धि से दूसरे की वस्तु उठा लेना चोरी है । डकैती, ताला तोड़कर ले जाना, जेब काटना, महसूल में चोरी करना, कम देना, अधिक लेना तथा राज्य की ओर से दण्डित होना पड़े अथवा लोगों की निगाह में अपमानित होना पड़े ऐसी चोरी न करने का यह व्रत है । रास्ते में पड़ा हुआ किसी का द्रव्य ले लेना, जमीन में गाडा हुआ किसी का धन निकाल लेना, किसी की धरोहर को हडप कर जाना, किसी की वस्तु चुरा लेना-इन सबका इस व्रत में अच्छी तरह त्याग किया जाता है। किसी के लेख को चोरी से अपने नाम पर छपवाना, दूसरे के पैसे से कोई अच्छा कार्य करके उसे अपने नाम से जाहिर करना-ऐसी सब प्रकार की चोरी त्याज्य है । किसी के बालक का अथवा किसी मनुष्य का अपहरण करना बहुत अधम प्रकार की चोरी है। किसी की कन्या अथवा स्त्री का अपहरण करना भयंकर बदमाशी से भरी हई चोरी है। चोर को छुपाना अथवा चोरी का माल रखना यह चोरी के माल में मुँह डालना है । वस्तुत: यह चोरी ही है और इसीलिये यह त्याज्य है । दिखने में भले चोरी हो, परन्तु उससे मनुष्य झूठा और अप्रामाणिक होकर जननिन्द्य बनता है, और अपने व्रत की हँसी कराता है तथा दूसरों की धर्मश्रद्धा घटाने में स्वयं निमित्तभूत बनता है-यह बात इस व्रत के धारण करनेवाले को विशेष रूप से लक्ष में रखनी चाहिए । १. पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । __ अदत्त नाददीत स्वं परकीयं क्वचित् सुधीः । -आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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