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________________ ३४ जैनदर्शन वह केवलज्ञान । जब आत्मा का राग-द्वेषरूपी मालिन्य पूर्णतया दूर हो सकता है और जब वह पूर्ण शुद्धि प्राप्त कर सकता है तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञान-प्रकाश भी, जिसे केवलज्ञान कहते हैं; उसे प्राप्त हो सकता ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है : जैनधर्म का एक सिद्धान्त यह है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है । जैन शास्त्रों का ऐसा कथन है कि कर्मबल से घूमते हुए संसारचक्र में निर्लेप, परम वीतराग और परम कृतार्थ ऐसे ईश्वर का कर्तृत्व कैसे सम्भव हो सकता है ? चेतन-अचेतनरूप अखिल जगत् प्रकृतिनियम से ही संचालित है । प्रत्येक प्राणी के सुख-दुख अपने-अपने कर्म-संस्कार के ऊपर अवलम्बित हैं । पूर्ण शुद्ध वीतराग ईश्वर न तो किसी पर प्रसन्न होता है और न किसी पर अप्रसन्न । ऐसा होना वीतरागस्वरूप निरंजन परमेश्वर में शक्य नहीं । ईश्वरपूजन की आवश्यकता : ईश्वर जगत्-कर्ता नहीं है' इस सिद्धान्त के अनुसंधान में यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि, तो फिर ईश्वरपूजन करने से क्या लाभ ? ईश्वर जब वीतराग है, वह तुष्ट अथवा रूष्ट नहीं होता तब उसके पूजन का क्या उपयोग ? परन्तु जैनशास्त्रकारों का ऐसा कहना है कि ईश्वर की उपासना ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए नहीं, किन्तु अपने हृदय की, अपने चित्त की शुद्धि करने के लिए है। सभी दुःखों के उत्पादक राग-द्वेष को दूर करने के लिए रागद्वेषरहित परमात्मा का अवलम्बन लेना परम उपयोगी एवं आवश्यक है । मोहवासना से भरी हुई आत्मा स्फटिक जैसी है अर्थात् स्फटिक के पास जिस रंग का फूल रखा जायगा वैसा रंग स्फटिक अपने में धारण कर लेता है, ठीक वैसे ही राग-द्वेष के जैसे संयोग आत्मा को मिलते हैं वैसे ही संस्कार आत्मा में शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं । अतः अच्छा, पवित्र संसर्ग प्राप्त करने की और वैसे संसर्ग में रहने की विशेष आवश्यकता समझी जा सकती हैं। वीतरागदेव का स्वरूप परम निर्मल और शान्तमय है । रागद्वेष का रंग किंवा उनका तनिक सा भी प्रभाव उसके स्वरूप में बिलकुल नहीं है । अत: उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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