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________________ जैनदर्शन पर ऊर्ध्वगमन करना यह आत्मा का स्वभाव है यह बात तूम्बे का दृष्टान्त देकर पहले कही जा चुकी है । वहाँ यह भी कहा जा चुका है कि ऊर्ध्वगमन करती हुई आत्मा लोक के अग्रभाग में पहुँच कर रुक जाती है और वहीं स्थिर हो जाती है, वहाँ से वह आगे गमन नहीं कर सकती, क्योंकि लोक के अग्रभाग से आगे गति करने में सहायभूत 'धर्मास्तिकाय' पदार्थ वहाँ पर नहीं है । और आत्मा में गुरुत्व तथा कोई कर्मजन्य प्रेरणा के न होने से वहाँ से वापिस नीचे अथवा तिरछा तो वह जा ही नहीं सकती । उपर्युक्त मुक्तावस्था में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से शरीर, इन्द्रिय एवं मन का वहाँ सर्वथा अभाव ही हो जाता है । इससे जो सुख निर्बन्धन, निरूपाधि, मुक्त आत्मा अनुभव करता है वह अनिर्वाच्य, अनुपमेय है। इस स्वभावसिद्ध परमसुख के आगे समग्र त्रिलोक का विषयक आनन्द कुछ भी बिसात में नहीं । बहुत से लोक शंका करते हैं कि मोक्ष में शरीर नहीं है; बाग-बगीचे, मोटर-गाडी, स्त्री-पुत्रादि, आमोद-प्रमोद के साधन नहीं है तो फिर वहाँ सुख क्या हो सकता है ? परन्तु यह क्यों भुलाया जाता है कि आत्मा की दुर्गति का एकमात्र कारण विषयवासना ही है । विषयवासना का दुःख ही संसार का दुःख है। माल-मलीदा उड़ाने में जो आनन्द प्रतीत होता है उसका कारण सिर्फ भूख की पीड़ा ही है । पेट भरा हो तो अमृततुल्य भोजन भी अच्छा नहीं लगता । सर्दी की पीडा दूर करने के लिए जो वस्त्र पहने जाते हैं वे ही वस्त्र ग्रीष्म की उष्णता में पहनने अच्छे नहीं लगते । बहुत बैठे रहनेवाले को चलने-फिरने का मन होता है और बहुत चलने-फिरने वाले को बैठने का, आराम लेने का मन होता है । कामभोग प्रारम्भ में जितने अच्छे लगते है उतने ही अन्त में वे प्रतिकूल प्रतीत होते हैं । संसार की यह सब स्थिति कैसी है ? जो सुख के साधन समझे जाते हैं वे सिर्फ क्षणिक शान्ति के अतिरिक्त दूसरा कौनसा सुख देनेवाले हैं ? पका हुआ फोड़ा जब फूट जाता है तब 'ओह्' करके जिस सुख का अनुभव होता है वह क्या वस्तुतः सुख है ? नहीं, वह तो मात्र वेदना की शान्ति है । विषयानुषंग में भी जो सुख दिखता है वह वेदना की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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