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________________ प्रथम खण्ड २३ स्वभाव से अमूर्त होने पर भी अनादिकाल से कर्म से आबद्ध होने की वजह से वह मूर्त जैसा हो गया है, अतः वह मूर्त्त कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । मन, वचन और काय के व्यापारों को 'आस्रव' कहते हैं । इस प्रकार के आस्रव से कर्मपुद्गल आकर्षित होकर, जिस प्रकार हवा से उडकर भीगे चमडे पर पड़ी हुई धूल उसके साथ चिपक जाती है उसी प्रकार, कषाय के कारण आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं—नीरक्षीरवत् आत्मा के साथ घुलमिल जाते हैं । इसीको-ऐसे घनिष्ठ सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं । जिस समय कर्मपुद्गल जीव-द्वारा गृहीत होकर कर्मरूप में परिणत होते हैं उस समय उनमें चार अंशों का निर्माण होता है । वे ही अंश बन्ध के भेद हैं और वे भेद हैं--प्रकृति, स्थिति, अनुभाव तथा प्रदेश ।। कर्मरूप से परिणत पुद्गलों में प्रकृति अर्थात् स्वभाव के बँधने को 'प्रकृतिबन्ध' कहते हैं; जैसे कि ज्ञान को ढंकने का स्वभाव, सुख-दुःख अनुभव कराने का स्वभाव इत्यादि । इस प्रकार प्राणी पर होने वाले असंख्य असरों को पैदा करनेवाले स्वभाव असंख्य होने पर भी संक्षेप में उनका वर्गीकरण करके उन सबको आठ भागों में विभक्त किया गया है और इसी कारण कर्म की संख्या आठ कही गई है; जैसे कि ज्ञान को आवृत करने के स्वभाववाला कर्मपुद्गल 'ज्ञानावरण कर्म' है, सुख-दुःख अनुभव करवाने के स्वभाववाला कर्म पुद्गल 'वेदनीय कर्म' है । प्रकृति अर्थात् स्वभाव बंधने के साथ ही साथ कर्मपुद्गल जीव के साथ कब तक चिपके रहेंगे इसकी काल मर्यादा भी बँध जाती है । इस काल--मर्यादा के निर्माण को 'स्थिति-बन्ध' कहते हैं । प्रकृति के बन्ध अर्थात् स्वभाव के निर्माण के साथ ही उसमें तीव्र अथवा अतितीव्र, मन्द अथवा मध्यम रूप से फल चखाने की शक्ति भी निर्मित हो जाती है । इस प्रकार की शक्ति अथवा विशेषता को 'अनुभानबन्ध' कहते हैं । जीव के साथ न्यूनाधिक मात्रा में कर्म पुद्गल के समूह का बँधना 'प्रदेश-बन्ध' है । जीव के द्वारा ग्रहण किए जाने के पश्चात् भिन्न-भिन्न स्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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