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________________ प्रथम खण्ड १९ नाम 'बन्ध' है । कर्म कहीं से लेने नहीं जाने पड़ते । इस प्रकार के पुद्गल द्रव्य सारे लोक में दबा दबाकर भरे हैं । इन्हें जैनशास्त्रकार 'कर्म-वर्गणा' कहते हैं । ये द्रव्य मोहरूप (राग-द्वेष - मोहरूप) चिकनाहट के कारण आत्मा के साथ चिपकते हैं । यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि विशुद्ध आत्मा में मोह अथवा राग द्वेष की चिकनाहट कैसे उत्पन्न हो सकती है ? इसके समाधान के लिए सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने की आवश्यकता है । आत्मा में रागद्वेषरूपी चिकनाहट अमुक समय में उत्पन्न हुई हो ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर आत्मा में रागद्वेष की चिकनाहट जिस समय उत्पन्न हुई उससे पहले वह शुद्ध स्वरूपवाला सिद्ध होता है और शुद्ध स्वरूपवाले आत्मा में रागद्वेष के परिणाम उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं हैं ! शुद्धस्वरूप आत्मा में भी यदि रागद्वेष के परिणाम का प्रारम्भ माना जाय तो फिर मुक्त आत्माओं में—पूर्ण शुद्ध आत्माओं में भी पुनः रागद्वेष के परिणाम क्यों न पैदा हों ? यदि ऐसा मानें कि भूतकाल में पहले कभी आत्मा पूर्ण शुद्ध थी और पीछे से उसमें रागद्वेष का प्रादुर्भाव हुआ तो फिर भविष्य में मुक्त अवस्था की शुद्ध स्थिति पर पहुँचने के बाद भी पुनः रागद्वेष के प्रादुर्भाव की खडी होनेवाली आपत्ति किस प्रकार दूर की जा सकेगी ? इस पर से यह सिद्ध होता है कि आत्मा में रागद्वेष का परिणाम अमुक समय से प्रारम्भ नहीं हुआ है, किन्तु वह अनादि हैं । जिस प्रकार अनादिकाल से मिट्टी के साथ मिले हुए सुवर्ण का उज्ज्वल दीप्तिमान स्वभाव ढँका हुआ है उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध चैतन्य स्वरूप भी अनादिसंयुक्त कर्मप्रवाह के आवरण से ढँका हुआ है । जिस प्रकार मलिन दर्पण को माँजने से वह उज्ज्वल हो जाता है और चमकने लगता है। उसी प्रकार आत्मा पर का कर्म-मल धुल जाने से दूर हो जाने से आत्मा उज्ज्वल बनती है और अपने विशुद्ध स्वरूप में प्रकाशमान होती हैं । इस पर से हम देख सकते हैं कि 'पहले आत्मा और बाद में कर्म का 'सम्बन्ध' ऐसा मानना शक्य नहीं है । 'कर्म पहले और बाद में आत्मा' ऐसा तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा कहने में आत्मा उत्पन्न होने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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