SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ जैनदर्शन उपभोग कर सकता है । परन्तु बाद में जब गेहूँ समाप्त हो जाएगे तब वर्तमान में बोया हुआ कोदों का धान ही खाने का उसके नसीब में आयगा । इसी प्रकार आज का पापाचरण करनेवाला मनुष्य पूर्व के विचित्र पुण्य-कर्म से उपार्जित धन अथवा सुख-सुविधा का वर्तमान में उपभोग कर सकता है, परन्तु बाद में (उपभोग का समय पूर्ण होने पर ) उसके वर्तमान के पापाचरण खराब फल लिए हुए उसके सम्मुख खड़े होंगे ही । इसी प्रकार दूसरे किसी के पास पूर्व के उपाजित-संगृहित कोदों का धान पड़ा हो और इस समय वह गेहूँ बो रहा हो, तो वर्तमान में कोदों के धान से वह चला लेगा, परन्तु बाद में [वह समाप्त होने पर ] वर्तमान में बोए हुए गेहूँ उसे मिलेंगे ही । इसी तरह आज का पुण्याचरणवाला मनुष्य भी पूर्व दुष्कृत से उपाजित दुःख वर्तमान में भले ही सहे, परन्तु उसका कठिन काल समाप्त होते ही उसके वर्तमानकालीन पुण्याचरण अपने मीठे फल के साथ उसके सम्मुख उपस्थित होंगे ही । मनुष्य का वर्तमान जीवन पुण्याचरण अथवा पापाचरणयुक्त भले हो, परन्तु पहले की उसकी खेती का फल उसे मिले बिना कैसे रह सकता है ? ___यदि वर्तमान जीवन पुण्याचरणमय हो और पूर्व की बुरी खेती के खराब फल उसके साथ युक्त हों तब, तथा वर्तमान जीवन पापाचारयुक्त हो और पहले की अच्छी खेती के मीठे फल उसके साथ जुड जाय तब सामान्य जनता को वह आश्चर्यरूप प्रतीत होता है, परन्तु इसमें आश्चर्य जैसा कुछ भी नहीं है । कर्म का नियम अटल और व्यवस्थित है । अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा-यह उसका अबाधित शासन है । यह एक प्राकृतिक नियम है । यह क्रिया-प्रतिक्रिया का स्वाभाविक सिद्धान्त है। अमुक संयोग अथवा अमुक परिस्थिति का अमुक परिणाम अवश्यम्भावी है और उसमें किसी तरह अन्यथा होता ही नहीं, इसका नाम प्राकृतिक नियम है । जैसी परिस्थिति वैसा परिणाम--इसी को प्राकृतिक नियम कहते हैं । यह नियम हमें अमुक करने की या अमुक न करने की आज्ञा नहीं करता, परन्तु यदि तुम्हें अमुक परिणाम चाहिए तो अमुक कार्य करो ऐसा कहता है । गेहूँ बोने से गेहूँ मिलते हैं और काँटे बोने से काँटे मिलते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy