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________________ तृतीय खण्ड २४१ रही हुई है । इसके बिना सुख की खोज के सब प्रयत्न व्यर्थ है, और अन्ततः वे दुःख में हीं परिणत होनेवाला है ! जहाँ धर्म की भूख हो वहाँ धर्मशाला का प्रश्न गौण बन जाता है । धर्म की भूखवाला मनुष्य अपनी उस भूख को तृप्त करने के प्रयत्न में ही हमेशा तत्पर रहेगा । वह समझता है कि किसी भी 'शाला' में भूख की तृप्ति की जा सकती है, फिर 'शाला की बड़ाई' हांकने का क्या अर्थ है ? परन्तु मनुष्य को जब दूसरी बातों की तरह इस बात का भी अहंकार होने लगता है तब धर्मशाला के पीछे रहा हुआ धर्मसेवन का उद्देश्य वह भूल जाता है अथवा भुला देता है और धर्म का पूजक मिट कर धर्मशाला का पूजक बन जाता है । भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय पडौसी - जैसे हैं और यदि वे पडौसीधर्म को बराबर समझें तो उन सबके बीच कितना अच्छा मेल जोल हो सकता है ? अपनी 'शाला' की यदि कोई विशेषता हो अथवा उसमें विशेष सुविधा हो तो अपने पडौसियों को वह अवश्य समझायी जा सकती है, परन्तु वह नम्रतापूर्वक तथा उदार वात्सल्याव से । इतना ही नहीं, हम उन्हें उसका लाभ लेने की भी प्रेमभाव से सूचना कर सकते हैं । चाहे कोई 'धर्मशाला' अपनी किसी खास विशेषता के कारण बड़ी क्यों न समझी जाती हो, परन्तु उसके मुसाफिर को यदि भूख ही न हो अथवा वैसी भूख को तृप्त करने में वह सावधान न हो तो किसी भी शाला के निवासी रूप से अथवा किसी भी महाशाला के झण्डाधारी को मुहर लगाने से कोई कल्याण नहीं होने का, जबकि छोटीसी शाला का यात्री भी यदि अपनी भूख को यथावत् तृप्त करता होगा तो वहाँ पर अवश्य ही अपने जीवन का पोषण प्राप्त करेगा और अपना कल्याण साधेगा । वास्तविक धर्म या कल्याणमार्ग सच्चारित्र है । कल्याणसाधन के इस अमोघ साधन को बराबर समझना ही सम्यग्ज्ञान है और इस साधन में बराबर श्रद्धा या विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है तथा उसका सम्यक् पालन ही सम्यक चारित्र है । इस तरह सम्यग्दर्शन (श्रद्धा), सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का विषय सच्चारित्र है । [ यहाँ पर सम्यक्-चरित्र का विषय सच्चारित्र कहा, इसका अर्थ है कि आचरणपालन-आराधन का विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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