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________________ ब्राह्मण कहते हैं । जायरूवं जहा मटठं निद्धन्तमलपावगं । रागदोसभयाईअं तं वयं बूम माहणं ॥ __-उत्तराध्ययन २५, २१. -जो राग-द्वेष भय आदि से मुक्त होकर सुतप्त विशुद्ध सुवर्ण की भाँति निर्मल-उज्ज्वल है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । स्नान धम्मे हरए बंभे संतितित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहिं सिण्णाओ विमलो विसुद्धो सुसीतिभूओ पजहामि दोसं ॥ - -उत्तराध्ययन १२, ४६. -धर्म हृद (जलाशय) है और ब्रह्मचर्य निर्मल एवं प्रसन्न शान्तितीर्थ है । उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध होता है । दान जो सहस्स सहस्साणं मासे मासे गवं दए । तस्सवि संजमो सेओ अदितस्सवि किंचण ॥ -उत्तराध्ययन ९, ४०. -प्रतिमास दस लाख गायों का दान करना उससे भी किसी (बाह्य) वस्तु का दान न करनेवाले मनुष्य का भी-संयम श्रेय है । युद्ध जो सहस्स सहस्साण संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥ -उत्तराध्ययन ९, ३४. १. बौद्ध धम्मपद ग्रन्थ के सहस्सवग्ग में चौथी गाथा इसी प्रकार की है। उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक गाथाएँ धम्मपद में थोड़े परिवर्तन के साथ मिलती हैं । दूसरे भी जैन आगमों के वचन समान रूप से धम्मपद में मिलते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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