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________________ द्वितीय खण्ड १२१ एवं मन को व्यग्र बना कर आत्मा को अस्वस्थ कर देती है उसी प्रकार ये तीन शल्य या मानसिक दोष भी मन एवं शरीर को कुतरकर आत्मा को अस्वस्थ बना देते हैं । जब तक ये शल्य दूर न हो तब तक व्रतपालन में स्थिरता नहीं आती । अतः इन दोषों का त्याग व्रती बनने की पहली शर्त है । अब इस प्रसंग पर गृहस्थ के षट्कर्म भी देख लें । षट्कर्म : देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानंचेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥ अर्थात् — देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थ के षट् (छह ) कर्म हैं । यह ध्यान में रखना चाहिए कि ये छह कर्म नित्यकर्म होनेसे प्रतिदिन आचरणीय हैं । देवपूजा – अर्थात् देव का — परमात्मा का भक्तिपूर्ण स्मरण, स्तवन, प्रार्थना । यह आन्तरिक दोषों को दूर करने का, विचारों को सुधारने का, भावना के अभ्यास एवं संवर्धन का तथा आत्मशक्ति को जागरित एवं विकसित करने का श्रेष्ठ मार्ग है । पूजा के द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो भेद बतलाए गए हैं । भगवत् - स्मरण अर्थात् भगवान् के साथ तादात्म्य साधने के आन्तरिक प्रयत्न को भावपूजा कहते हैं । इस वास्तविक पूजा का मार्ग सरल बन सके ऐसी (आन्तरिक) ऊर्मि जगाने के कार्य में भक्ति का बाह्य उपचार काम में आ सकता है, अतः इस उपचार को द्रव्यपूजा कहते हैं । 'द्रव्यपूजा' शब्द में आए हुए द्रव्य शब्द का अर्थ निमित्तभूत अथवा सहायभूत होता है । भावपूजा के लिये सहायभूत होनेवाली बाह्य प्रक्रिया द्रव्यपूजा है । भक्तजन, जो सीधा पूजा ( भावपूजा) पर नहीं पहुँच सकता वह इस प्रक्रिया का विवेकयुक्त आश्रय लेकर भावपूजा का लाभ प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है । भावपूजा का सामर्थ्य भावना में परिवर्तन करता है, सद्गुणों की तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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