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________________ द्वितीय खण्ड ८५ (१) अनित्य भावना-सब विनाशी है ऐसा विचार करना अनित्यभावना है । अनासक्ति के लिये यह भावना अत्यन्त उपयोगी है । 'संसार की जिन वस्तुओं के लिये हम अन्याय करते हैं वे साथ में आने वाली नहीं है । यह जीवन ही क्षणभंगुर है, फिर इसके लिये अन्याय अथवा अधर्म का आचरण करना उचित है क्या ? प्रकृति के ऊपर कुछ अंशों में शायद हम विजय प्राप्त कर सकें, दूसरे मनुष्यों अथवा राष्ट्रमण्डल पर भी प्रभुत्व जमा लें, किन्तु मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते । मृत्यु हमारे सब विजयों को हमसे छीन लेती है । जिन्दगी 'चार दिन की चाँदनी' है, इसे पापाचरण से काली क्यों करें ? काली करेंगे तो 'फिर अन्धेरी रात !' एक दिन यह शरीर मिट्टी में मिल जायगा, फिर दूसरों के सिर पर इसे क्यों नचाएँ ? विनश्वर जिन्दगी के लिये अनीति-अन्याय के, परद्रोह के दुष्कर्म करना और बाद में उसके परिणामस्वरूप घोर अधोगति में गिरना यह तो मूर्खता की ही बात होगी, समझदारी की नहीं—इस प्रकार की भावना हमें न्यायमार्ग से च्युत नहीं होने देती । यही इस भावना की उपयोगिता है । जिस प्रकार सम्पत्ति चली जाती है उसी प्रकार विपत्ति भी चली जाती है, यह बात ध्यान पर रहे तो विपत्ति एवं इष्ट-वियोग के समय धैर्य धारण किया जा सकता है यह भी इस भावना की उपयोगिता है। बाकी, इस भावना का उपयोग अकर्मण्य बनने में नहीं करना चाहिये । यह तो उसका दुरुपयोग ही होगा । परहित के सत्कार्य में यथाशक्ति प्रवृत्तिशील रहने में ही अनित्य-भावना बराबर पची मानी जा सकती है, क्योंकि 'अनित्य समझकर 'नित्य' की प्राप्ति के आकांक्षी को स्वपरहितसाधन के सन्मार्ग पर चलना ही रहा ।। भले ही सुखोपभोग की भौतिक वस्तुएँ अनित्य और दुःखमिश्रित हो, फिर भी जबतक जीवन है तबतक ऐसी जीवनोपयोगी वस्तुओं को पाना आवश्यक होता है । उनके बिना चल ही नहीं सकता । इसीलिये ऐसी वस्तुएँ न्यायपूर्वक उपार्जित या प्राप्त करनी चाहिए और उनका उपभोग आसक्तिरहित होकर करना चाहिए-ऐसा उपदेश देना ही इस भावना का उद्देश है । आत्महत्या तो निषिद्ध ही है । (२) अशरण-भावना-'मैं राजा हूँ, महाराजा हूँ, जनता का अथवा जगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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