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________________ ८१ द्वितीय खण्ड में फँसे हुए समझते हैं और उस योग के प्रतिकार की शोध करने को उत्सुक हैं, उनके लिये आध्यात्मिक औषध के प्रकाशन उपयोगी है । अध्यात्म शब्द 'अधि' और 'आत्मा' इन दो शब्दों से समास से बना है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को लक्ष में रखकर उसके अनुसार बरतना - आत्मविकास की कल्याणमयी दिशा में विहरना ही अध्यात्म अथवा आध्यात्मिक जीवन है । संसार के जड़ एवं चेतन तत्त्व जो एक-दूसरे के स्वरूप को जाने बिना नहीं जाने जा सकते, उनका यथायोग्य निरूपण अध्यात्म के विषय में किया जाता है । आत्मा क्या वस्तु है ?, आत्मा को सुख - दुःख का अनुभव कैसे होता है ?, आत्मा को सुख - दुःख का अनुभव करने में किसी अन्य तत्त्व का संसर्ग कारणभूत है ?, कर्म का संसर्ग आत्मा को किस प्रकार हो सकता है ?, यह संसर्ग सादि है या अनादि ?, यदि अनादि है तो उसका उच्छेद कैसे हो सकता है ?, कर्म का स्वरूप कैसा है ?, कर्म के भेदानुभेद कौनकौन से हैं ?, कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता किस प्रकार नियमबद्ध हैं ?, इस समय आत्मा किस दशा में है ?, वह अपनी मूल स्थिति को पा सकता है या नहीं और पा सकता है तो किस तरह ? इन सब बातों की विचारणा अध्यात्मशास्त्र में अच्छी तरह से की जाती है । इसके अतिरिक्त अध्यात्म के विषय में मुख्यतया संसार ( भवचक्र) की निस्सारता और निर्गुणता का, राग-द्वेष मोहरूपी दोषों के कारण भवाटवी में जो भ्रमण करने और क्लेश सहने पड़ते हैं उनका यथातथा चित्रण किया जाता है । भिन्न-भिन्न प्रकार से भावनाओं को समझाकर मोहममता का निरोध करना ही अध्यात्मशास्त्र का प्रधान लक्ष होता है और उसका सम्पूर्ण उपदेश इसी लक्ष की ओर पूर्ण बल से कहता है । दुराग्रह का त्याग, अद्वेषभाव, तत्त्वशुश्रूषा, सन्त-समागम, सत्पुरुषों की प्रतिपत्ति, तत्त्व श्रवण, कल्याणभावना, मिथ्यादृष्टि का निरास, सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, क्रोध - मान-माया - लोभरूप कषायों का नाश, इन्द्रियों पर संयम, मनःशुद्धि, ममता का त्याग, समता का प्रादुर्भाव, चित्त की स्थिरता, आत्मस्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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