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________________ द्वितीय खण्ड ७३ पड़ता है, जबकि मोहक्षय का साधक एकदम केवलज्ञान ही प्राप्त करता है, क्योंकि मोह का क्षय होने के बाद उसका पुनः प्रादुर्भाव नहीं होता । बारहवें गुणस्थान में आत्मा चित्तयोग की पराकाष्ठा रूप शुक्लसमाधि पर आरूढ़ होकर सम्पूर्ण मोहावरण, सम्पूर्ण ज्ञानावरण, सम्पूर्ण दर्शनावरण और सम्पूर्ण अन्तरायचक्र का विध्वंस करके केवलज्ञान प्राप्त करता है और केवलज्ञान प्राप्त होते ही — (१३) सयोगकेवली गुणस्थान का आरम्भ होता है । इस गुणस्थान के नाम में जो 'सयोग शब्द रखा है उसका अर्थ 'योगवाला' होता है । योगवाला अर्थात् शरीर आदि के व्यापारवाला । केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भी शरीरधारी के गमनागमन, बोलने आदि के व्यापार रहते ही हैं । देहादि की क्रिया रहने से शरीरधारी केवली सयोगकेवली कहलाता है । इस विवेचन के सन्दर्भ में गुणस्थानसमारोहसम्बन्धी महत्त्व की प्रक्रिया पर तनिक दृष्टिपात कर लेना यहाँ प्रासंगिक होगा । सातवे गुणस्थान पर पहुँचे हुए प्रगतिशील वीर्यवान साधक की आन्तरिक साधना अत्यन्त सूक्ष्म बनकर प्रखर प्रगति करने लगती है और क्षणभर में विरामभूमि पर पहुँच जाती है । यह कैसे होता है यह जरा देखें । I सब कर्मों का सरदार मोहनीय कर्म है । इसके दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय - इस प्रकार के दो भेदों का उल्लेख पहले किया जा चुका है और वहाँ यह भी बतलाया है कि 'दर्शन' का अर्थ है दृष्टि अर्थात् तात्त्विक बोध अथवा कल्याणभूत तत्त्वश्रद्धा । इसे जो रोके वह दर्शनमोहनीय और चारित्र को जो रोके वह चारित्रमोहनीय । जिस जीव का जिस अन्तर्मुहूर्त में दर्शनमोहनीय के अर्थात् मिथ्यात्व के पुद्गलों का उदय उतने समय तक के लिये रुक जाय उस जीव का वह अन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वसम्पन्न बनता है और वह सम्यक्त्व उपशम - सम्यक्त्व कहलाता है । सम्यक्त्व के प्रकाश में जीव इस सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त — जितने काल के पश्चात् उदय में आनेवाले दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्वमोहनीय) के पुद्गलों का संशोधन करने का कार्य करता है । ऐसा करते हुए जितने पुद्गलों का मालिन्य दूर होकर वे शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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