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________________ $$$$$ $$$$ $$$ $ 555555 5 55 $$ $$ $$$$ $$ $ $$! श्रुत सेवा में समर्पित एक आदर्श परिवार धन सम्पत्ति मिलना पूर्व पुण्यों का फल है। बहुतों के पास अपार लक्ष्मी होती है, किन्तु लक्ष्मी का सदुपयोग करना, उसे धर्म एवं पुण्य कार्यों में खर्च करना, यह किसी-किसी भाग्यशाली को मिलता है। जिनमें धर्म के संस्कार दृढ़ होते हैं, सत्संग का प्रभाव जिनके मन में रमा होता है, उन्हीं में इस प्रकार की प्रेरणा और भावना जगती है। वे स्वयं त्याग, तप व संतोष का आचरण करते हैं, परन्तु सेवा और धर्म प्रभावना के क्षेत्र में खुले हाथों दान करते हैं। धियाना निवासी श्री त्रिलोकचन्द जी जैन 'भक्त' जी का परिवार एक ऐसा ही आदर्श परिवार है। ___ 'भक्त' जी के नाम से प्रसिद्ध श्री त्रिलोकचन्द जी जैन के नाम से लुधियाना के आबालवृद्ध सभी सुपरिचित हैं। त्रिलोक चन्द जी जैन समाज के प्रतिष्ठित सुश्रावक थे। वे धर्मवीर, दानवीर और अनन्य श्रमणोपासक थे। धर्म श्रद्धा उनकी रग रग में रमी थी। साधु सन्तों के प्रति भक्ति, दान की भावना और समाज-सेवा के कार्यों में उदार हृदय से दान देना उनकी विशेषता थी। परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी म. सा. की उन्होंने अविस्मरणीय सेवा की थी। महामना 'भक्त जी की एक विशेषता थी कि वे मौन रहकर अपने धर्म कार्यों में तल्लीन रहते थे। तथा सेवा, दान करके भी कभी यश-कीर्ति की कामना नहीं करते। किन्तु कस्तूरी की सुगंध जैसे हवा के साथ अपने आप फैलती है, उसी प्रकार उनके सद्गुणों की सुगंध पूरे समाज में व्याप्त थी। जन मानस में उनके लिए सहज ही श्रद्धा, प्यार और सम्मान का भाव मौजूद था। श्री भक्त जी का पुत्र पौत्र परिवार उन्हीं के द्वारा सृजित पथ पर गतिमान है। वे दान-- सेवा और गुरुभक्ति के क्षेत्र में उसी प्रकार तन-मन-धन से समर्पित हैं। उनके चार सुपुत्र हैं (१) श्री ऋषभदास जी (२) श्री धर्मवीर जो, (३) श्री महेन्द्र कुमार जी और (४) श्री सतीश कुमार जी। ये सभी अपने पूज्य पिताश्री द्वारा प्रदत्त सुसंस्कारों को प्राणवन्त करते हुए उनके सेवा मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। प्रस्तुत सागम श्री स्थानांगसूत्र (प्रथम भाग) का प्रकाशन श्री त्रिलोक चन्द जी जैन के सुपुत्रों द्वारा अपने पृज्य पिता श्री जी की पुण्य स्मृति में कराया जा रहा है। इस प्रकाशन में ज)) )))))) )))))) )))))) ))) ))))) ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002905
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages696
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size21 MB
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