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________________ (३) कायद्वार-औदारिक आदि शरीरयुक्त जीव को अथवा पृथ्वीकायिक आदि ६ काय सहित जीव को है सकायिक कहते हैं। वे केवली भी होते हैं। अतः सकायिक सम्यग्दृष्टि में पाँच ज्ञान भजना से होते हैं। जो म मिथ्यादृष्टि सकायिक हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं। जो षट्कायों में से किसी भी काय में नहीं हैं, या - रिक आदि कायों से रहित हैं. ऐसे अकायिक जीव सिद्ध होते हैं, उनमें सिर्फ केवलज्ञान ही होता है। (४) सूक्ष्म-वादरद्वार-सूक्ष्म जीव पृथ्वीकायिकवत् मिथ्यादृष्टि होने से उनमें दो अज्ञान होते हैं। बादर जीवों में केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः सकायिक की तरह उनमें पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। (५) पर्याप्तद्वार-पर्याप्त जीवों में केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः उनमें सकायिक जीवों के समान भजना से ५ ज्ञान और ३ अज्ञान पाये जाते हैं। पर्याप्त नारकों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियमतः होते हैं, क्योंकि असंज्ञी - जीवों में से आये हए अपर्याप्त नारकों में ही विभंगज्ञान नहीं होता, मिथ्यात्वी पर्याप्तकों में तो होता ही है। इसी प्रकार भवनपति एवं वाणव्यन्तर देवों में समझना चाहिए। पर्याप्त विकलेन्द्रियों में नियम से दो अज्ञान होते हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों में ३ ज्ञान और ३ अज्ञान भजना से होते हैं, उसका कारण है, कितने ही जीवों को अवधिज्ञान या विभंगज्ञान होता है, कितनों को नहीं होता। अपर्याप्तक नैरयिकों में तीन ज्ञान नियम से और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय आदि जीवों में सास्वादन सम्यग्दर्शन सम्भव होने से उनमें दो ज्ञान और शेष में दो अज्ञान पाये जाते हैं। अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में तीर्थंकर प्रकृति को बाँधे हुए जीव भी होते हैं, उनमें अवधिज्ञान होना सम्भव है, अतः उनमें तीन ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। मिथ्यादृष्टि मनुष्यों को अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इसलिए उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं। अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों में जो असंज्ञी जीवों में से आकर उत्पन्न होता है, उसमें अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान का अभाव होता है, शेष में अवधिज्ञान या विभंगज्ञान नियम से होता है। अतः उनमें नैरयिकों के समान तीन ज्ञान वाले या दो अथवा तीन अज्ञान वाले होते हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में संज्ञी जीवों में से ही आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान या विभंगज्ञान अवश्य होता है। अतः उनमें नियमतः तीन ज्ञान " या तीन अज्ञान होते हैं। नो-पर्याप्त-नो-अपर्याप्त जीव सिद्ध होते हैं, वे पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्म से रहित होते हैं। अतः उनमें एक मात्र केवलज्ञान ही होता है। (६) भवस्थद्वार-निरयभवस्थ का अर्थ है-नरकगति में उत्पत्ति-स्थान को प्राप्त। इसी प्रकार तिर्यंचभवस्थ आदि पदों का अर्थ समझ लेना चाहिए। निरयभवस्थ का कथन निरयगतिकवत् समझ लेना चाहिए। यावत् मनुष्य-देव का कथन समझ लेना चाहिए। (७) भवसिद्धिकद्वार-भवसिद्धिक यानी भव्य जीव जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनमें सकायिक की तरह ५ ज्ञान भजना से होते हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव सदैव मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं, अतः उनमें तीन अज्ञान की भजना है। ज्ञान उनमें होता ही नहीं। सिद्ध होने के बाद जीव भव्यत्व का त्याग करके नो भविक नो अभविक बन जाते हैं। (८) संज्ञीद्वार-संज्ञी जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों की तरह है, अर्थात उनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। 13वें गुणस्थान में केवली होने के बाद नोसंज्ञी नोअसंज्ञी कहलाते हैं। उनमें सिर्फ ॥ केवल ज्ञान होता है। असंज्ञी जीवों का कथन द्वीन्द्रिय जीवों के समान है, अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में उनमें सास्वादन सम्यग्दर्शन की सम्भावना होने से दो ज्ञान भी पाये जाते हैं। पर्याप्त अवस्था में तो उनमें नियमतः दो अज्ञान होते ही हैं। ज卐555555555555)))))))555555555555555555555555558 अष्टम शतक : द्वितीय उद्देशक (33) Eighth Shatak : Second Lesson Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002904
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhyaprajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2008
Total Pages664
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_bhagwati
File Size21 MB
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