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________________ १५८ fare का इतिहास उसी में किये गये सत्कर्मों या दुष्कर्मों के लिए स्वर्ग या नरक में अनन्त वास करना पड़ता है। अतः अपेक्षाकृत अधिक लोग तीसरी सम्भावना में विश्वास करते हैं, क्योंकि इसमें भौतिक मृत्यु के उपरान्त किसी-न-किसी रूप में एवं किन्हीं वातावरणों में आत्मा के सतत अस्तित्व का संकेत मिलता है । उपर्युक्त उपनिषद् - वचन यह प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त किस प्रकार उपनिषद् - काल में अपना रूप धारण कर रहा था। ऋग्वेद में देवयान एवं पितृयान नामक दो मार्ग विदित थे और यह भी ज्ञात था कि स्वर्ग में आनन्द एवं आह्लाद प्राप्त होते हैं, किन्तु ऋग्वेद से यह नहीं ज्ञात हो पाता कि स्वर्ग के आनन्दों की क्या अवधि थी और न वहाँ पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त के विषय में कोई स्पष्ट एवं निश्चित उक्ति ही मिलती है । ब्राह्मण ग्रन्थों में दोनों मार्गों की ओर बहुधा संकेत किया गया है और इस धारणा की ओर भी निर्देश मिलता है कि मनुष्य को कई बार मरना होगा (पुनर्जन्म ); किन्तु तथापि सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों पर आधारित पुनर्जन्म के विषय में कोई स्पष्ट एवं निश्चित सिद्धान्त नहीं मिलता । अत्यन्त स्पष्ट (और सम्भवतः अत्यन्त आरम्भिक ) वक्तव्य वृह० उप० के दो वचनों ( ३।३।१३ एवं ४ | ४|५७) में है जो पुनर्जन्म के सिद्धान्त के उद्गम पर प्रकाश डालते हैं । ये दोनों वचन याज्ञवल्क्य से सम्बन्धित हैं और उन्होंने ही दृढ़तापूर्वक कहा है कि अपने कर्मों के फलस्वरूप ही मनुष्य नये जन्म ग्रहण करता है। इन दोनों वचनों में देवयान एवं पितृयाण का कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु बृह० उप० (६।२११६) एवं छा० उप० (५।१०) ने पुनर्जन्म के दो मार्गों की चर्चा की है और उनके लिए जो कीटों एवं मक्खियों के रूप में जन्म लेते हैं, तीसरे स्थान की बात कही है। यह दो मार्गों वाले सिद्धान्त के आगे का मार्ग है, क्योंकि इसमें एक और मार्ग जोड़ दिया गया है। एक अन्य अन्तर भी पाया जाता है । छान्दोग्योपनिषद् (५।१०१५ ) में आया है कि वैसे लोग, जो यज्ञ करते हैं, जन-कल्याण का कार्य करते हैं तथा दान देते हैं, चन्द्रलोक जाते हैं और जब उनके सत्कर्मो के फल समाप्त हो जाते हैं तो वे उसी मार्ग से लौट आते हैं जिससे वे चन्द्रलोक गये थे (अर्थात् चन्द्र से आकाश, तब वायु, धूम्र, कुहरा, बादल एवं वर्षा के मार्ग से लौटते हैं) और पुनः किसी माता के पेट से जन्म लेते हैं। इससे विदित होता है कि जो लोग यज्ञ आदि करते हैं उन्हें दो प्रतिकार ( बदले ) मिलते हैं, यथा -- बहुत काल तक चन्द्रलोक में निवास तथा इस पृथिवी पर पुनर्जन्म | जो प्राणों का आयतन है, अमृत है, भय छा० उप० की भांति प्रश्न उ० में भी वही सिद्धान्त आया है, किन्तु यहाँ सूर्यलोक के निवास की भी बात आयी है यथा-- "संवत्सर वास्तव में प्रजापति का है, इसके दो मार्ग हैं—दक्षिणी एवं उत्तरी । जो लोग यज्ञ एवं जन के कार्य को आवश्यक समझ कर सम्पादित करते हैं वे चन्द्र को ही अपने भावी लोक के रूप में पास करते हैं, और वे ही इस लोक को फिर लौट आते हैं। अतः जो ऋषि सन्तान की कामना रखते हैं दक्षिणी मार्ग को अपनाते हैं । जो ऋषि तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा एवं ज्ञान के द्वारा आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे उत्तरी मार्ग से सूर्य की ओर जाते हैं, से मुक्त है, यह सर्वोच्च एवं अन्तिम लक्ष्य है । यहाँ से वे लौटते नहीं, यहाँ अन्य पदार्थों के लिए निरोध है | इस पर एक श्लोक है ( ऋ० १।१६४ । १२ ) - "कुछ लोग उसे पाँच पाँवों वाले ( पाँच ऋतुओं ), बारह रूपों वाला ( १२ महीनों) पिता कहते हैं, सर्वोच्च स्वर्ग में वर्षा का दाता कहते हैं, अन्य लोग कहते हैं कि ऋषि नीचे के अर्ध भाग में सात पहियों वाले (घोड़ों या सूर्य की किरणों) एवं छह तीलियों (अरों) वाले रथ में रखा जाता है ।" ऋग्वेद का यह मन्त्र सम्भवतः उन दो मार्गों के लिए उद्धृत किया गया है जो प्रतीक के रूप में वर्ष के दो भागों को बताते हैं । ॠग्वेद के इस मन्त्र का प्रथम अर्ध भाग सूर्य की ओर संकेत करता है जो कि स्वर्ग के सर्वोच्च अर्धभाग में अवस्थित है और सम्भवतः दूसरा अर्धमाग स्वर्ग के उस भाग को बताता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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