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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६५ (११८); वायु० (अध्याय १०-१५); विष्णु० (६॥७, जो विचार एवं शब्दों में योगसूत्र के समान है); विष्णुधर्मोत्तर० (३।२८०-२८४); स्कन्द० (काशीखण्ड, अध्याय ४१)। श्री जेराल्डिन कॉस्टर महोदय ने अपने ग्रन्थ 'योग एण्ड वेस्टर्न साइकॉलॉजी' (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १६३४) में योग की प्रशंसा की है जो पठनीय है। उन्होंने लिखा है--'मुझे विश्वास है कि वे विचार, जिन पर योग आधृत है, मानव के लिए सार्वभौम रूप में सत्य हैं और योगसूत्र में इतनी सामग्री है जिसका हमें पता चलाना चाहिए और उपयोग करना चाहिए (पृ० २४४)'. . . 'मेरा तो यह कहना है कि पूर्व में योग का जो अनुसरण किया जाता है वह मानसिक विकास की व्यावहारिक प्रणाली एवं विश्लेषणात्मक शान्तिकर अर्थात रोग निवारक है. वह सामान्य विश्वविद्यालयीय पाठयक्रम की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक है एवं वास्तविक जीवन से कहीं अधिक सम्बन्धित है। मुझे इसकी प्रतीति एवं विश्वास है कि पतञ्जलि के योगसूत्र में सचमुच ऐसी ख्यापना है जिसे अर्वाचीन काल के अति विकसित एवं प्रवीण मनश्चिकित्सक बड़ी निष्ठा के साथ खोजने में संलग्न हैं (पृ० २४५)।' डा० बेहनन की पुस्तक 'योग, एक वैज्ञानिक मूल्यांकन' का अन्तिम अध्याय बड़ा महत्वपूर्ण एवं मनोरम है। उन्होंने योग के कतिपय स्वरूपों का मूल्यांकन किया है जो स्वयं अपने पर किये गये प्रयोगों पर आधृत है। डा० बेहनन ने लोनावाला (पूना) के स्वामी कुवलयानन्द के निर्देशन में एक वर्ष बिताया और स्वयं प्राणायाम में वे तीन वर्षों तक संलग्न रहे। यहाँ स्थानाभाव से हम उनके मूल्यांकन की सभी बातों को नहीं रख सकते, किन्तु उनके कुछ निष्कर्षों को बिना दिये रह भी नहीं सकते। उन्हें इसकी अनुभूति हुई है कि योगाभ्यास से चित्त (मन) अन्तर्मुख हो जाता है और बाह्य संसार से वह तटस्थ हो जाता है (पृ० २३२)। उन्हें पता चला है कि सम्भवतः प्राणायाम से ऐसी विश्राम-स्थिति आती है कि मन अन्तर्मुखता की ओर उन्मुख हो जाता है (प० २३४)। सामान्य रूप से साँस लेने की प्रक्रिया की तुलना करने के पश्चात् उन्हें पता चला है कि उज्जायी में आक्सीजन की वृद्धि २४.५%, भस्त्रिका में १८.५% एवं कपालभाति में १२% हुई। नासिका के अग्र भाग पर अनिमिष रूप से ध्यान लगाने से मन की चंचल वृत्तियों का निरोध होता है (पृ० २४२) । यौगिक अभ्यासों से संवेगात्मक स्थिरता आती है। डा० बेहनन ने लगभग आधे दर्जन से अधिक योगाभ्यासियों को बहुत सन्निकट से देखा, उनके जीवन का अवलोकन किया और अन्त में यही निष्कर्ष निकाला कि उन्होंने अपने जीवन में जितने लोगों को देखा है उनमें ये योगाभ्यासी ही अत्यन्त सुखी व्यक्ति हैं जिनकी प्रसन्न मुद्रा संपर्कीय हो उठती है अर्थात् अन्य लोगों में फैल जाती है (पृ० २४५)। ___ डा० पी० ए० सोरोकिन ने, जो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में हैं और आज के महान् समाज-शास्त्रियों में परिगणित हैं, एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण निबन्ध ('योग एण्ड मैस ट्रांस्फिगरेशन') भारतीय विद्या भवन के जर्नल (नवम्बर, १६५८, पृ० १११-१२०) में प्रकाशित किया है, जिसका प्रथम वाक्य यों है--'योग की प्रणालियों एवं विधियों, विशेषत: राजयोग की प्रणालियों एवं विधियों में आज के मनोविश्लेषण, मानस चिकित्सा शास्त्र, मानस नाटय, नैतिक शिक्षा एवं चरित्र-शिक्षा की अधिकांश सभी सारगर्भित प्रणालियाँ एवं विधियाँ समाहित हो जाती हैं।' योगाभ्यास में संलग्न व्यक्ति के गुणों की अभिव्यक्ति से यह प्रकट हो जाता है कि वह क्रमशः आध्यात्मिक स्तरों में विकसित होने में सफलता प्राप्त करता जा रहा है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (२।११) में योगाभ्यास के प्रथम अनुकूल लक्षण इस प्रकार व्यक्त किये गये हैं--'लघुत्व अर्थात् शरीर का हलकापन, आरोग्य, अलोलुपता (लोमहीनता), शरीर के रंग का प्रसार या दीप्ति (चमक), स्वर-सौष्ठव, शुभ या सुखद शरीर-गन्ध, मूत्र एवं मल की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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