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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास अब हम यह देखें कि योगसूत्र ने किस प्रकार प्राणायाम की परिभाषा और उसकी व्याख्या की है । जब आसन की स्थिरता की उपलब्धि हो जाय तो श्वास लेने एवं छोड़ने की गति में जो विराम ( विच्छेद) होता है उसे प्राणायाम कहते हैं ( श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः) । भाष्य ने 'श्वास' का अर्थ यों लगाया है - 'उस वायु को भीतर खींचना जो शरीर के बाहर रहती है' और 'प्रश्वास' का अर्थ यों लगाया है- 'कोष्ठ या छाती की वायु को बाहर फेंकना (बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः कौष्ठस्य वायोनिःसारणं प्रश्वासः ) । इन दोनों का अभाव प्राणायाम है ( तयोर्गतिविच्छेद: उभयाभाव: प्राणायामः । भाष्य २।४६ पर ) । इससे प्रकट है कि प्राणायाम में मुख्य तत्त्व है श्वास एवं प्रश्वास का अभाव, जिसे योग के ग्रन्थों में कुम्भक कहा गया है। आगे के सूत्र में आया है कि प्राणायाम ( गतिविच्छेद) के तीन प्रकार हैं- बाह्य आभ्यन्तर एवं स्तम्भ । तात्पर्य यह है कि कुम्भक (श्वास रोकना या विच्छेद या विराम) बाहर से वायु खींचने पर भी किया जाता है ( प्रथम प्रकार ) या भीतर की वायु बाहर छोड़ देने पर भी किया जाता है (द्वितीय प्रकार ) या जब सामान्य दशा हो ( अर्थात् न तो बाहर से वायु खींची जाय, और न भीतर की वायु बाहर फेंकी जाय ) तब विराम किया जाय ( तृतीय प्रकार ) । कालों या मात्राओं या संख्याओं के अनुसार इन प्रकारों में प्रत्येक को नियमित किया जा सकता है। जब विराम ३६ मात्राओं तक होता है तो प्राणायाम मृदु कहलाता है, जब ७२ मात्राओं तक किया जाता है तो उसे मध्यम तथा जब १०८ मात्राओं तक होता है तो तीव्र कहा जाता है । जब प्राणायाम बहुत दिनों, पक्षों एवं मासों तक किया जाता है तो उसे दीर्घं कहा जाता है, जब उसे बड़ी दक्षता से किया जाता है तो वह सूक्ष्म कहलाता है । २०१ प्राणायाम के विषय में हमें योगसूत्र ( १।३४ ) पर भी ध्यान देना चाहिए (प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ) । इस सूत्र में आया है कि मन की अबाधित शान्ति के लिए एक उपाय है साँस को बाहर करना एवं रोकना । इस सूत्र एवं इसके माष्य से प्रकट होता है कि विधारण (कुम्भक -- श्वास को रोक रखना) प्राणायाम है । " प्राणायाम की व्याख्या के सिलसिले में देश, काल एवं संख्या की व्याख्या भी आवश्यक है । सामान्यतः एक स्वस्थ विकसित व्यक्ति ४ सेकण्डों में एक बार श्वास लेता और छोड़ देता है ( अर्थात् १ मिनट में १५ बार या दिन रात्रि में २१६०० बार ) । रेचक की गति को मापने के लिए रुई का एक अंश या एक पतला सूत नासिका छिद्रों से कुछ दूरी पर रख दिया जाता है और वह नाक के श्वास से जितनी दूर उड़ जाता है या जहाँ जाकर रुक जाता है उस दूरी को अँगुली की चौड़ाई से नाप लिया जाता है । जहाँ तक काल का प्रश्न है, कई काल इकाइयाँ वर्णित हैं, क्योंकि उन प्राचीन कालों में कोई वैज्ञानिक यन्त्र नहीं था। एक बार पलक गिरने ( निमेष) में जो समय लगता है वह एक स्वर के उच्चारण में लगता है, और उसे मात्रा कहा जाता है । अपने हाथ से घुटने को तीन बार छूने तथा अँगूठे एवं तर्जनी को छूने में जो समय बीत जाता है उसे भी मात्रा कहा जाता । अन्य काल-इकाइयों की चर्चा हम यहाँ छोड़ दे रहे हैं। सामान्य नियम यह है कि रेचक एवं पूरक दोनों वहन्त्यन्नरसान् नाँड्यो दशप्राणप्रचोदिता: ) ने भी दस प्राणों का उल्लेख किया है। देखिए डा० व्रजेन्द्रनाथ सील का ग्रन्थ 'दि पॉजिटिव साइंस आव दि ऐश्येण्ट हिन्दूज' (लांगभैंस, ग्रीन, १६१५, पृ० २२८ - २३१) जहाँ इन दस प्राणों की व्याख्या की गयी है । ६०. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य । यो० सू० ( ११३४ ); कोष्ठस्य वायोर्नासिकापुटाभ्यां प्रयत्नविशेषाद् वमनं प्रच्छर्दनं विधारणं प्राणायामस्ताभ्यां वा मनसः स्थिति सम्पादयेत् । भाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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