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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास असंप्रज्ञात समाधि की उद्भूति होती है जो वृत्तियों की समाप्ति के परिणाम की द्योतक है । इस स्थिति का निरन्तर अभ्यास होता रहता है और मन में केवल हलकी प्रतिच्छायाएँ आती रहती हैं। प्रथम पाद के सूत्र १६५१ में समाधि के विभिन्न प्रकारों, प्राप्ति के विभिन्न रूपों, योग पद्धति में ईश्वर की स्थिति, योग-साधन के नौ अन्तरायों (विघ्नों) तथा उनके साथ चलने वाले अन्य सहयोगियों, बाधाओं को दूर करने के साधनों, यथा--एक देवता पर ही ध्यान लगाना, पवित्र लोगों के प्रति मित्रता, दया, आनन्द की उत्पत्ति तथा अपवित्र लोगों के प्रति उदासीनता आदि का विवेचन किया गया है। पातञ्जलसूत्र (१।१६-२३) में असंप्रज्ञात समाधि के लिए योगियों को नौ कोटियों में बांटा गया है. जिन पर हम यहाँ विचार नहीं करेंगे । योगसूत्र (११२३-२८) में ऐसी व्यवस्था है कि ईश्वर की भक्ति द्वारा भी समाधि एवं मुक्ति (समाधि का परिणाम) प्राप्त की जा सकती है। ३२ ईश्वर एक विशिष्ट पुरुष है, जाता है । १११८ पर भाष्य में आया है तदभ्यासपूर्वकं हि चित्तं निरालम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्बोजः समाधिः। श२ परभाष्य में यों आया है-स निर्बोज समाधिः । न तत्र किचित्संप्रज्ञायत इत्यसंप्रज्ञातः । द्विविधः स योगश्चित्तवृत्तिनिरोध इति । अस्मिता पाँच क्लेशों में एक है और अविद्या को शेष चार क्लेशों का आधार कहा गया है। (२४) और २१६ में इसकी परिभाषा यों है-'अस्मिता द्रष्टा (अर्थात् व्यक्ति या आत्मा) एवं देखने के यन्त्र (अर्थात् बुद्धि) को समानुरूपता है।' यह कुछ विलक्षण-सा है कि अस्मिता को समाधि का एक प्रकार कहा गया है । सम्भवतः यहाँ पर 'अस्मिता' का अर्थ है 'मैं हूँ' को अर्थात् व्यक्तिता की चेतना। यह अवलोकनीय है कि बौद्ध ग्रन्थों में संप्रज्ञातसमाधि के चार प्रकारों के समानान्तर विचार पाये जाते हैं (मझिमनिकाल, जिल्द १, पृ० २१-२२, (ट्रेकनर संस्करण, १९८८)। ३२. ईश्वरप्रणिधानाद्वा । क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्वबीजम् । स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । तस्य वाचकः प्रणवः । तज्जपस्तदर्थभावनम् । ततः प्रत्यक्चेतना. धिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च । योगसूत्र (११२३-२६)। व्यासभाष्य द्वारा 'ईश्वरप्रणिधान' की व्याख्या दो प्रकार से की गयी है-(१) भक्ति-विशेष (१।२३ पर) एवं (२) परमगुरु को सभी क्रियाओं का अर्पण या सभी क्रियाओं (कर्मों) के फलों का त्याग अथवा संन्यास (ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलसंन्यासो वा, २१ को टीका में)। भावागणेशवृत्ति ने इस पर ब्रह्मार्पण के अर्थ के लिए कूर्मपुराण उद्ध त किया है 'नाहं कर्ता सर्वमेवैतद् ब्रह्मैव कुरुते तथा। एतद् ब्रह्मार्पणं प्रोक्तमृषिभिस्तत्त्वदशिभिः ॥' योगसूत्र (१।२२-२३ एवं २०४५) का कथन है कि ईश्वरभक्ति द्वारा समाधि की प्राप्ति शीघा हो सकती है। यह द्रष्टव्य है कि बृहद्योगियाज्ञवल्क्य (लोनावाला, कैवल्यधाम द्वारा प्रकाशित) ने, ऐसा प्रतीत होता है, योगसूत्र के १२४, २८-२६ को श्रुति के रूप में निम्नलिखित श्लोकों में रखा है-क्लेशकर्मविपाकैश्च वासनाभिस्तथैव च। अपरामष्टमेवाह पुरुषं हीश्वरं श्रुतिः॥ वाच्यो यज्ञेश्वरः (वाच्यः स ईश्वर ?) प्रोक्तो वाचकः प्रणवः स्मृतः । वाचकेन तु विज्ञातो बाच्य एव प्रसीदति ॥ तदर्थ प्रणवं जप्यं ध्यातव्यं सततं बुधः । ईश्वरः पुरुषाख्यस्तु तेनोपास्तुः प्रसीदति ॥ बह्योगि० (२।४३-४५) । योगसूत्र (१२२८) की व्याख्या में भाष्य ने यों कहा है-'तदस्य योगिनः प्रणवं जपतः प्रणवार्थ च भावयतश्चित्तमेकाग्रं सम्पद्यते ।' तथा वाचस्पति ने 'भावनम्' का अर्थ 'पुनः पुनश्चित्ते निवेशनम्' के रूप में किया है । 'ओम्' की प्रशंसा के विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ३०१-३०२, जहाँ 'जप' (धीरे-धीरे या केवल मन में कहना) का उल्लेख है; और देखिए मनु (२१८५-८७), विष्णुधर्मसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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