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________________ धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम १७५ से है जो नित्य है, स्वयम्भू है, जो धार्मिक विषयों की विवेचना करता है, जिसका सुधार नहीं हो सकता और न जो विलुप्त हो सकता है और जो वैदिक शब्दों के आशय के अनुसार ही व्याख्यायित होता है। अत: यद्यपि पूर्वमीमांसा द्वारा विकसित वैदिक वचनों की व्याख्या के कुछ नियम मैक्सवेल के 'इण्टर प्रेटेशन आव स्टैच्यूट्स' जैसे ग्रन्थों में विकसित नियम-व्यवस्थाओं की व्याख्या के नियमों से मिलते-जुलते हैं। तथापि प्रस्तुत लेखक विस्तार के साथ इस विवेचन में नहीं पड़ेगा और न मीमांसा-नियमों तथा मैक्सवेल के नियमों की समानता के प्रदर्शन में लगेगा। आज से लगभग ५५ वर्ष पूर्व सन् १६०६ में 'टैगोर लॉ लेक्चर्स' में श्री किशोरी लाल सरकार ने इस प्रकार का कार्य किया था। उन दिनों आधुनिक विद्वानों द्वारा मीमांसा का अध्ययन अपनी आरम्भिक अवस्था में था, अत: अपने पूर्ववर्ती लेखक की मान्यताओं के विरोध में कुछ कहना उचित नहीं होगा। किन्तु इतना कहे बिना रहा नहीं जाता कि उस विद्वान् ने भरसक यही कहने का प्रयत्न किया कि जैमिनि के व्याख्या-सम्बन्धी नियम किसी भी प्रकार मैक्सवेल द्वारा स्थापित नियमों से हेय नहीं हैं और दोनों में बहुत साम्य है। ऐसा करने के लिए श्री सरकार बहुत खींचातानी करते हैं और जटिल व्याख्याएँ उपस्थित करते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा प्रकट होता है कि उन्होंने जैमिनि एवं शबर को ठीक से समझा भी नहीं है। २ इस ग्रन्थ में हमारा सम्बन्ध केवल पूर्वमीमांसा के उन सिद्धान्तो एवं व्याख्या-सम्बन्धी उन नियमों से है जो धर्मशास्त्र को प्रभावित करते हैं। हमने यह बहुत पहले देख लिया है कि मीमांसा के कितने सिद्धान्त एवं कितनी पारिभाषिक अभिव्यक्तियाँ धर्मशास्त्र को प्रभावित करती हैं। अब हम व्याख्या के नियमों का विवेचन उपस्थित करेंगे। प्रथम नियम यह है कि वेद का कोई भी भाग (यहाँ तक कि एक शब्द भी) अनर्थक (अर्थहीन या उद्देश्यहीन) नहीं है। इसी से वेद का अधिकांश विधियों की प्रशंसा में अर्थवाद के रूप में विवेचित हआ है। यह बात ऊपर कही जा चुकी है (गत अध्याय)। पू० मी० सू० में विधियों को अति संमान दिये जाने के फलस्वरूप तथा अर्थवादों (जो केवल प्रशंसा के निमित्त आते हैं) और मन्त्रों (केवल अभिधायक के रूप में) को गौण रूप देने के कारण ब्राह्मणग्रन्थों का थोड़ा-सा अंश परमोच्च प्रमाण वाला को गया है, जब कि ब्राह्मणों एवं संहिताओं का बहुलांश, जिसमें मन्त्र संग्रहीत हैं, गौण महत्ता वाला रह गया है या कुछ भी महत्तापूर्ण नहीं रह पाया है। विभिन्न दृष्टिकोणों से व्याख्या-सम्बन्धी मीमांसा-नियम कई श्रेणियों में विभाजित हो जाते हैं। कुछ तो सामान्य हैं और कुछ विशिष्ट । जब बहुत-से मूल वचन एक ही विषय से सम्बन्धित बातों की व्यवस्था करते हए एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाते हैं और श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या (३।३।१४) के प्रयोग को साधन मान लेते हैं तो कुछ नियमों को विशिष्ट विधि से संलग्न हो जाना पड़ता है, तथा कुछ नियम ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध अधिकार, अतिदेश, ऊह, बाध, तन्त्र एवं प्रसंग से रहता है। सामान्य नियमों के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। केवल विधियाँ ही विशिष्ट आवश्यक प्रमाण वाली होती हैं तथा अर्थवाद तभी प्रामाणिक होते हैं जब विधियों के साथ वाक्य-रचना की पूर्णता घोषित करते हैं। यह एक सामान्य नियम है। विधियों, नियम-विधियों एवं परिसंख्या-विधि के अन्तर को प्रदर्शित करने वाले नियम सामान्य होते हैं। २. इस विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, १०८४१-८४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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