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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास गरुडपुराण में ऐसा आया है-'गान्धारी को, जिसने दशमीयुक्त एकादशी के दिन उपवास किया था, अपने सौ पुत्रों से हाथ धोना पड़ा; अतः दशमीयुक्त एकादशी का परित्याग करना चाहिए।' यहाँ पर पूर्वार्ध मात्र निन्दानुवाद है (अर्थात् 'तं परिकर्जयेत्' के भावात्मक नियम का सीधा समर्थन करता है), क्योंकि ऐसी मान्यता है कि 'वचन में निन्दा भर्त्सना मात्र के लिए नहीं है, प्रत्युत जो भर्त्सना योग्य है उसके विरोध की व्यवस्था के लिए है। इस व्याख्या के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर (पृ० ६३५) । मी० बा० प्र० (पृ० ५०-५८) ने अर्थवादों के ३८ प्रकारों पर प्रकाश डाला है। स्थानाभाव से उन पर विचार नहीं किया जायेगा। वेद का अधिकांश अर्थवादों से परिपूर्ण है, विशेषत: ब्राह्मण-ग्रन्थ । अर्थवाद के विषय में तन्त्रवार्तिक ने एक सामान्य उल्लेख किया है कि वे अर्थवाद वचन जो विधि वचनों के उपरान्त आते हैं, निर्बल टहरते हैं, किन्तु जो विधियों के पूर्व आते हैं वे बलवान होते हैं। वैदिक वचनों की तृतीय श्रेणी में वर्ग या कोटि में मन्त्रों की परिगणना होती है। हमने इनके विषय में पहले ही पढ़ लिया है। कुछ मन्त्रों में आदेश भी हैं, यथा ऋ० (१०।११७।५ : 'पणीयादिनाधमानायतव्यान् अर्थात् बलिष्ठ लोगों को चाहिए कि जो भिक्षा मांगता है, वे उसको अवश्य धन दें) एवं वाज० सं० (२४१२०, 'वसन्ताय कपि जलानालभते')। किन्तु सामान्यतः मन्त्र केवल व्यक्तकारक या प्रतिपादनकारक होते हैं और ऐसी बातों की ओर ध्यान ले जाते हैं जो विधि-वाक्यों से व्यवस्थित कर्मों के साथ सम्बन्धित होती हैं। तन्त्रवातिक' ने टिप्पणी की है कि यह निश्चित रूप से समझा जा चुका है कि वे धार्मिक कृत्य, जो ऐसे मन्त्रों के साथ किये जाते हैं, जो ऐसी बातों का ध्यान दिलाते हैं, समृद्धि की ओर ले जाते हैं (या स्वर्ग की प्राप्ति कराते हैं) पाटकगण को यह विदित हो जायेगा कि किसप्रकार पूर्वमीमांसा के सिद्धान्त ने मन्त्रों को गौण रूप दे रखा है और यज्ञ सम्बन्धी बातों में उनसे निष्क्रिय सहयोग लिया है, ऋग्वेद में उत्कृष्ट स्तुतियाँ (प्रार्थनाएँ) पायी जाती हैं, किन्तु मीमांसा-सिद्धान्त में सबसे उत्तम स्थान ब्राह्मण मूल-वचनों को प्राप्त है और इन्हीं ब्राह्मण-वचनों में अधिकांश विधियों संग्रहीत हैं। यह हमने बहुत पहले देख लिया है कि ऋग्वेदीय मन्त्र ईश्वर-भक्ति से परिपूर्ण हैं और उनमें पाप-स्वीकृति एवं पश्चात्ताप के उपरान्त ईश्वर को सम्बोधित प्रार्थनाएँ पायी जाती हैं (देखिए ऋ० ७।८६।४-६)। ऋ० सूक्त (३।३६) में निःश्रेयस की भावना का बाहुल्य है और इस सूक्त के दूसरे मन्त्र में आया है--'यह प्रार्थना (धी:) प्राचीनकाल में स्वर्ग में उत्पन्न हुई, उत्कटता के साथ पवित्र गोष्ठी में गायी गयी, शुद्ध एवं मंगलमय वस्त्र से आवेष्टित हुई है, यह हमारी है, प्राचीन है और पूर्व-पुरुषों से वंशानुगत रूप में प्राप्त हुई है । वैदिक वचनों का चौथा वर्ग (श्रेणी या कोटि), जो धर्म से सम्बन्धित है, 'नामधेय' (यज्ञों के व्यक्तिवाचक नाम) कहलाता है। उदाहरणार्थ इस प्रकार के वचन हैं, 'उद्भिद् के साथ यज्ञ करना चाहिए' (ताण्ड्य ब्राह्मण १६७२-३), 'पशु के इच्छुक को चित्रा के साथ यज्ञ करना चाहिए' (तै० सं० २।४१६)। अब प्रश्न यह है कि क्या इन वचनों में जो कुछ व्यवस्थित हुआ है वह किसी कृत्य में आहुति दिया जाने वाला पदार्थ या द्रव्य है (यथा-- ३७. ये हि विध्युद्देशात्परस्तादर्थवादा धूयन्ते तेषामस्ति दौर्बल्यम्। ये पुरस्ताच्छ्यन्ते ते मुख्यत्वाद बलीयांसो भवन्ति । तन्त्रवार्तिक (३।३।२) । ३८. शबर ने पू० मी० सू० (१।२।३२) पर टीका करते हुए लिखा है : 'अर्थप्रत्यायनार्थमेव यो मन्त्रीच्चारणम् । यज्ञान प्रकाशनमेव प्रयोजनम् । मन्त्ररेष स्मृत्वा कृतं कर्माभ्युदयकारि भवतीत्यवधार्यते । तलवा. (२।१।३१, पृ० ४३३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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