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________________ १३८ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रयच्छति ) । प्रतिपत्ति का दूसरा उदाहरण है चात्वाल पर कृष्ण हरिण के सींग को फेंकना ( तै० सं० ६।१।३१८ एवं पू० मी० सू० ४।२।१६ ) । पू० मी० सू० ( ११/२/६६ - ६८ ) ने अर्थकर्म का एक दृष्टान्त दिया है । मर जाने पर यजमान को उसकी यज्ञिय सामग्रियों एवं पात्रों के साथ जलाना उपकरणों या पात्रों का प्रतिपत्ति कर्म कहा जाता है ( तै० सं० ११६८२ - ३ एवं पू० मी० सू० ११।३।३४ ) । मनु० (५।१६७ ) ने व्यवस्था दी है कि यदि किसी आहिताग्नि की पत्नी उसके पूर्व ही मर जाती है तो वह पति द्वारा स्थापित पवित्र अग्नि से ही यज्ञिय उपकरणों के साथ जलायी जाती है। नियम के तीसरे प्रकार के उदाहरण के लिए देखिए आप ध० सू० (१।११।३१।१ ) जहाँ आया है-- 'पूर्व मुख करके भोजन करना चाहिए ( यह नियम प्रतिनिधि एवं प्रतिपत्ति से सम्बन्धित नहीं है ) । व्यक्ति किसी दिशा में भोजन कर सकता है किन्तु यह नियम केवल पूर्व में ही खाने को कहता है | यहाँ प्रतिनिधि या प्रतिपत्ति का प्रश्न नहीं उठता है । विधियाँ वर्थ ( कृत्य के लिए) एवं पुरुषार्थ ( पुरुष के लिए ) रूपों में भी विभाजित हैं' । ये 'प्रयुक्ति' से सम्बन्धित हैं । 'प्रयुक्ति' को प्रेरणात्मक शक्ति कहते हैं, जो पू० मी० सू० के चौथे अध्याय का विषय है । पू० मी० सू० ( ४ । १ । २ ) में पुरुष र्थ की परिभाषा है और शबर ने उस सूत्र की तीन व्याख्याएँ उपस्थित की हैं, जिनमें एक है- 'पुरुषार्थ वह विषय है जिसके करने पर मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, क्योंकि सुख को प्राप्त करने की इच्छा से इसे जाना जाता है और पुरुषार्थ ( मनुष्य का उद्देश्य ) सुख से भिन्न नहीं है'। इस अस्पष्ट एवं असुन्दर परिभाषा से यह प्रतीत होता है कि पुरुषार्थ ( मनुष्य का उद्देश्य ) सुख से भिन्न नहीं है'। इस अस्पष्ट एवं असुन्दर परिभाषा से यह प्रतीत होता है कि पुरुषार्थं वही है जिसे सुख के फल की प्राप्ति के लिए साधारणत: व्यक्ति अपनाता है; किन्तु क्रत्वर्थ वह है जो पुरुषार्थ की पूर्ति में सहायक होता है और स्वयं सीधे तौर कर्ता को कोई फल नहीं देता । दर्शपूर्ण मास ऐसे सभी प्रमुख यज्ञ पुरुषार्थ के अन्तर्गत सम्मिलित हैं, किन्तु ऋवर्थ के अन्तर्गत वे सभी सहायक कृत्य रखे जाते हैं जो प्रमुख कृत्य को पूर्ण करने के उपयोग में आते हैं, यथापाँच प्रधान जो दर्शपूर्ण मास के लिए सहायक है ऋत्वर्थ हैं और स्वयं दर्शपूर्णमास पुरुषार्थ है २८ । इस अन्तर की महत्ता इसमें है कि जो क्रत्वर्थ है यदि उसका अनुसरण न किया जाय तो स्वयं कृत्य दोषपूर्ण रह जाता है, किन्तु जो पुरुषार्थ है यदि उसका अनुसरण न किया जाय तो स्वयं व्यक्ति अपराधी या पातकी हो जाता किन्तु अनुष्ठान या कृत्य दोषपूर्ण नहीं होता । पू० मी० सू० (४|१/२ ) की तीन व्याख्याओं का एक वर्ग शबर द्वारा यों उपस्थित किया गया है - ब्राह्मण को दान-ग्रहण से धन कमाना चाहिए, क्षत्रिय को विजयद्वारा तथा वैश्य को कृषि आदि से ( देखिए, गौतम, १०। ४०-४२, मनु १०।७६ - ७६) । ये नियमों के समान लगते हैं । यदि धन प्राप्ति क्रत्वर्थ हो, और यदि कोई शास्त्र विहित साधनों के अतिरिक्त अन्य साधनों से धन प्राप्त करता है और उस धन से यज्ञ करता है तो स्वयं यज्ञ पूर्ण हो जायगा और वाञ्छित फल नहीं देगा । किन्तु यदि धन की प्राप्ति पुरुषार्थं से हुई हो तो चाहे जिस साधन से उसकी प्राप्ति हुई हो उससे किया गया यज्ञ दोपपूर्ण नहीं कहा जायेगा । मिताक्षरा ( याज्ञ० २।११४ ) ने गुरु प्रभाकर की एक उक्ति उद्धृत की है जो दायभाग (याज्ञ० २।६७) द्वारा भी उद्धृत है, किन्तु नाम नहीं २८. तं० सं० (३:६।१।१) ने दर्शपूर्ण मास के प्रमुख हविष्यों के पूर्वाभास के रूप में पाँच प्रयाजों का उल्लेख किया है, यथा---'समिवो यजति, तनूनपातं यजति, इड़ो यजति, बर्हियंजति, स्वाहाकारं यजति' । ये कृत्यों के या देवताओं के नाम हैं, इस विषय में मतैक्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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