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________________ १०५ धर्मशास्त्र का इतिहास में शास्त्राज्ञा या शासन की आज्ञा का अर्थ होता है किसी व्यक्ति को कुछ करने से रोकना।' अत: 'चोदना' या 'विधि' शब्द का प्रयोग यहाँ पर 'अनशासन' या उपदेश के अर्थ में हआ है। परिणामस्वरूप धर्म का तात्पर्य है ऐसा धार्मिक कर्म (याग) जो सर्वोच्च हित साधने वाला हो। ऋ० (१०-६०-१६) में यज्ञ को प्रथम (या प्राचीन) धर्म (यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्) कहा गया है और शबर ने पू० मी० स० (१२) के भाष्य में इस सिद्धान्त के प्रतिपादन में इसको उद्धत किया है कि धर्म का अर्थ है 'याग' । वेदांगज्योतिष (श्लोक ३, वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः) में आया है कि वेदों का प्रवर्तन यज्ञ के लिए हुआ क्षरा (याज्ञ. २११३५) एवं दायतत्त्व (4०१७२) व्यवहारमयख (१० १५७) ऐसे मध्यकालीन ग्रन्थों ने एक ऐसा श्लोक उद्धत किया है जो देवल या कात्यायन का कहा जाता है, जिसमें आया है कि सारी सम्पत्ति यज्ञों के लिए उत्पन्न की गयी है. अत: उसका व्यय धर्म के उपयोगों में होना चाहिए न कि नारियों, मूों एवं अधार्मिकों के लिए ।२८ शबर ने दूसरे सूत्र का परिचय यह कहकर दिया है कि धर्म क्या है (अर्थात् धर्म का स्वरूप क्या है), इसके लक्षण क्या हैं । इसकी प्राप्ति के साधन क्या हैं, इसकी प्राप्ति के त्रुटिपूर्ण साधन क्या हैं और इससे क्या प्राप्त होता है (अर्थात् इसके ज्ञान से क्या लाभ या फल मिलता है) और पुन: उत्तर दिया है कि दूसरे सूत्र ने प्रथम दो की (अर्थात् धर्म के स्वरूप एवं लक्षणों की) व्याख्या की है। इसका तात्पर्य यह है कि 'चोदनाएँ' (वैदिक प्रबोधक वचन) धर्म के विषय में प्रमाण (ज्ञान के साधन) हैं और वैदिक वचनों द्वारा जो व्यवस्थित होता है वह धर्म (धर्मस्वरूप) है। वेद एवं पूर्वमीमांसा शास्त्र के साथ धर्म का सम्बन्ध स्पष्ट एवं संक्षिप्त ढंग से कुमारिल के एक श्लोक से प्रकट हो जाता है२ । 'जब धर्म के सम्यक् ज्ञान के लिए विवेचन चलता रहता है तो इस प्रकार के ज्ञान के लिए वेद एक साधन होता है, विधि के विषय में मीमांसा पूर्ण सूचना प्रदान करेगी। जिस प्रकार अच्छी दृष्टि रहने पर भी बिना प्रकाश के कुछ नहीं जाना जा सकता. उसी प्रकार बिना पु० मी० स० की विधियों को जाने व्यक्ति धर्म का सम्यक ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । इसके उपरान्त जैमिनि ज्ञान (प्रमाण) के साधनों की जाँच करते हैं और धोषित करते हैं कि 'शब्द' (अर्थात् वेद) के अतिरिक्त धर्म के विषय में ज्ञान का कोई अन्य साधन नहीं है ; धर्म का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता । वह प्रत्यक्ष नहीं है । अन्य सभी प्रमाण प्रत्यक्ष पर आधारित हैं अत: उनसे धर्म की परिभाषा ख्या नहीं की जा सकती। कुमारिल के अनुसार प्रमाण ६ है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति एवं अभाव । प्रभाकर ने अन्तिम (अर्थात् अभाव) को प्रमाण नहीं माना है। प० मी० स० के बारह अध्यायों के विषय यों हैं--(१) प्रमाण (ज्ञान के साधन); (२) भेद (६ कारण जिनके आधार पर धार्मिक कृत्य एक-दूसरे से पृथक् माने जाते हैं और कुछ प्रमुख तथा कुछ सहायक २८. यज्ञार्थ विहितं वृत्तं तस्मात्तद् विनियोजयेत् । स्थानेषु धर्मजुष्टेषु न स्त्रीमूर्ख विमिषु ॥ मितापारा (याज्ञ० २११३५) ने इस सिद्धान्त का घोर विरोध किया है। २६. धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना। इतिकर्तव्यताभागं मीमांसा पूरयिष्यति ।। कुमारिल को बृहट्टीका, तन्त्ररहस्य (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज, १६५६, ५० ३६) द्वारा उद्धत। इस श्लोक का परिचय अधोलिखित शब्दों द्वारा दिया गया है : 'वेदक्यार्थसंशये सति तन्निर्णयौपयिकन्यायनिबन्धनं हि शास्त्रं मीमांसा।... सा च करणीभूतस्य बेदस्येतिकर्तव्यता । यथा चक्षुष आलोकः । यथा वानुमानस्य व्याप्तिस्माणम् । यथा वोपमानस्य सादृश्यम् । यना वा अर्थापत्तः सन्देहापत्तिः।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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