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________________ ३२४ धर्मशास्त्र का इतिहास या सम्बन्धियों के समक्ष आवेदन-पत्र के रूप में कोई अभियोग उपस्थित कर सकें। याज्ञवल्क्य (२।२९४) की व्याख्या मिताक्षरा का कथन है कि यद्यपि पति एवं पत्नी वादी एवं प्रतिवादी के रूप में एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं जा सकते, तथापि यदि राजा के कानों में पति या पत्नी द्वारा एक-दूसरे के विरोध में किये गये अपराध की ध्वनि पहुँच जाय तो उसका कर्तव्य है कि वह पति या पत्नी में जो भी दोषी या अपराधी हो, उसे उचित रूप से दण्डित करे, नहीं तो वह पाप का भागी माना जायगा। कुछ अपराधों में बिना अभियोग आये राजा अपनी ओर से संलग्न हो सकता है, और ऐसे अपराध १० हैं, यथा स्त्री-हत्या, वर्णसंकर, व्यभिचार, पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा विधवा का गर्भाधान, भ्रूण हत्या आदि। यदि पति अपनी सती स्त्री (पत्नी) का परित्याग करता था तो उसे अपनी सम्पत्ति का १/३ भाग स्त्री को दे देना पड़ता था (याज्ञवल्क्य १७६, नारद, स्त्रीपुंस, ९५) । स्त्रियों की दशा अब हम प्राचीन भारत की सामान्य स्त्रियों एवं पतियों की दशा एवं उनके चरित्र के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त करेंगे। यह हमने बहुत पहले देख लिया है कि पत्नी पति की अर्धांगिनी कही गयी है (शतपथब्राह्मण ५।२।१।१०; ८।७।२।३; तैत्तिरीय सहिता ६।१।८।५; ऐतरेयवाह्मण १।२।५; बृहस्पति, अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० ७४०)। वैदिक काल में स्त्रियों ने ऋग्वेद की ऋचाएँ बनायी, वेद पढ़े तथा पतियों के साथ धार्मिक कृत्य किये। इस प्रकार हम देखते हैं कि तब पश्चात्कालीन यग से उनकी स्थिति अपेक्षाकृत बहुत अच्छी थी। किन्तु वैदिक काल में भी कुछ लोगों ने स्त्रियों के विरोध में स्वर ऊँचा किया, उनकी अवमानना की तथा उनके साथ घृणा का बरताव किया। वैदिक एवं संस्कृत साहित्य के बहुत-से वचन स्त्रियों की प्रशंसा में पाये जाते हैं (बौधायनधर्मसूत्र २।२।६३-६४, मनु ३५५-६२, याज्ञवल्क्य ११७१, ७४, ७८, ८२, वसिष्ठधर्मसूत्र २८११-९, अत्रि १४०-१४१ एवं १९३-१९८, आदिपर्व ७४।१४०१५२, शान्तिपर्व १४४।६ एवं १२-१७, अनुशासनपर्व ४६, मार्कण्डेयपुराण २११६९-७६)। कामसूत्र (३।२) ने स्त्रियों को पुष्पों के समान माना है (कुसुमसधर्माणो हि योषितः)। दो-एक अपवादों को छोड़कर स्त्रियों को किसी भी दशा में मारना वर्जित था। गौतम (२३।१४) एवं मनु (८।३७१) ने व्यवस्था दी है कि यदि स्त्री अपने से नीच जाति के पुरुष से अवैध रूप से सभोग करे तो उसे कुत्तों द्वारा नुचवाकर मार डालना चाहिए। आगे चलकर इस दण्ड को भी और सरल कर दिया गया और केवल परित्याग का दण्ड दिया जाने लगा। (वसिष्ठ २१।१० एवं याज्ञवल्क्य ११७२)। कुछ स्मृतिकारों ने बड़ी उदारता प्रदर्शित की है, यथा अत्रि एवं देवल, जिनके मत से यदि कोई स्त्री पर-जाति के पुरुष से संभोग कर ले और उसे गर्भ रह जाय तो वह जातिच्युत नहीं होती, केवल बच्चा जनने या मासिक धर्म के प्रकट होने तक अपवित्र रहती है। पवित्र हो जाने पर उससे पुनः सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है और उत्पन्न बच्चा किसी अन्य को पालने के लिए दे दिया जाता है (अत्रि १९५-१९६, देवल ५०-५१)। यदि किसी नारी के साथ कोई बलात्कार कर दे तो वह त्याज्य नहीं समझी जाती, वह केवल आगामी मासिक धर्म के प्रकट होने तक अपवित्र रहती है (अत्रि १९७-१९८)। देवल ने म्लेच्छों द्वारा अपहृत एवं उनके द्वारा प्रष्ट की गयी तथा गर्भवती हुई नारियों की शुद्धि की बात २२. असवर्णस्तु यो गर्भः स्त्रीणां योनौ निषिच्यते। अशुद्धा सा भक्षेत्रारी यावद्गभं न मुञ्चति ॥ वियुक्ते तु ततः शल्ये रजश्चापि प्रदृश्यते। तवा सा शुध्यते नारी विमलं कांचनं यथा ॥ अत्रि १९५-१९६; देवल ५०-५१ । अत्रि ने पुनः कहा है-बलानारी प्रभुक्ता वा चौरभुक्ता तयापि वा।न त्याज्या दूषिता नारी न कामोऽस्या विधीयते॥ ऋतुकाल: उपासीत पुष्पकालेन शुध्यति ॥ १९७-१९८। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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