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________________ हैं।' इन चित्रों को तत्कालीन मानव ने अवकाश के क्षणों में बनाया होगा। मोर्यकाल में भी वहाँ कुछ निर्माण कार्य हुआ प्रतीत होता हे जो गुप्तकाल में आगे बढ़ा ओर देवगढ़ तभी से मूर्ति-निर्माण का केन्द्र बन गया।' यहाँ इस काल के ओर इसके बाद' के भी कुछ शिखालेख प्राप्त हुए हैं। उत्तर गुप्तकाल में भी यहाँ यह क्रम चलता रहा। चन्देल-युग में इसका राजनीतिक महत्त्व बढ़ा और कदाचित् उसी समय यहाँ गिरि-दुर्ग का निर्माण हुआ। तब से मुगलकाल के पूर्व तक यहाँ राजनीतिक हलचल तो रही ही, मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण भी निरन्तर होता रहा। 13वीं शती में यह स्थान मुसलमानों के अधिकार में आ गया। इस काल में यहाँ का राजनीतिक महत्त्व कम हो गया, किन्तु धार्मिक महत्त्व पूर्ववत् बना रहा। सन् 1811 ई. में यह स्थान महाराजा सिन्धिया के अधिकार में आ गया था, परन्त कछ समय बाद उन्होंने इसे चन्देरी के बदले में अँगरेज सरकार को दे दिया। देवगढ़ में प्रचलित रहे धर्म-सहिष्णु वातावरण में ब्राह्मण तथा जेन संस्कृतियाँ साथ-साथ पल्लवित-पुष्पित होती रहीं। मन्दिरों की भित्तियों, द्वारों आदि पर उत्कीर्ण मूर्तियों, अभिलेखों आदि से युग-युगीन संस्कृति की अच्छी झाँकी मिलती है। खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्वर आदि की भांति यहाँ का वातावरण वासना-प्रधान कभी नहीं रहा। तीर्थंकरों तथा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की अधिकता उसके 1. गफा के अन्तर्भाग में सिन्दरी और काले रंग से कछ चित्र बने हैं। वायीं ओर एक चलते हा हाथी पर अंकुशधारी महावत चित्रित है। उसके ऊपर एक 3 इंच 5 इंच का चतुर्भुज लहरियादार रेखाओं के साथ चित्रित है, जिसके मध्य में दो रेखाकृतियाँ और हैं। उसकी दायीं आर इंच : 2.5 इंच का एक टेढ़ा-मेढ़ा चतुर्भुज है, जिसके बीच की रखाएं समझ में नहीं आतीं। उसकी भी बाजू में किसी पक्षी, कदाचित् मुर्गा, का रेखाचित्र है। उससे लगा हुआ एक 6 इंच टंच का लहरियादार रेखाओं से बना चतुर्भुज भी है। सामने की दीवार पर कुछ अस्पष्ट चित्र हैं, जिनके ऊपर गहरे सिन्दूरी रंग में । फुट x 1 फुट 4 इंच की एक वक्र चतुष्कोण रखाकृति है। लगभग ऐसी ही तीन रेखाकृतियाँ दायीं दीवार पर भी हैं। 2. देवगढ़ में इस काल के अनेक मन्दिर और मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। 3. (अ) नाहरघाटी में उत्कीर्ण अभिलेख, दे.--ए. कनिंघम : ए. एस. आइ., जिल्द 10, पृ. 102 । (व) मं. सं. 12 के महामण्डप के एक अठपहलू स्तम्भ पर गुप्तकालीन लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख, दे.-सर जॉन मार्शल : ए. एस. आइ., ए. आर., 1914-15 ई.; खण्ट एक, पृ. 27 । (स) डॉ. डी. बी. स्पूनर : ए. एस. आइ., ए. आर., 1917-18 ई.; खण्ट एक, (कलकत्ता, 192) ई.), पृ. 32। 4. दशावतार मन्दिर के अहाते में प्राप्त 9 फुट 1 इंच ऊँचे तथा । फुट 8.5 इंच चतुष्कोण स्तम्भ (संख्या एक) पर उत्कीर्ण अभिलेख। (क) वाई. आर. गुप्ते : ए. प्रो. रि., हि. बु. मा., ना. स. (लाहौर, 1915 ई.), पृ. 5। (ख) दयाराम साहनी : ए. प्रो. रि., हि. बु. मा., ना. स. (लाहोर, 1968 ई.), पृ. 12 । (ग) पं. माधवस्वरूप वत्स ; मेम्वायर ऑफ दी ए. एस. आर. (संख्या 70), (दिल्ली, 1952 ई.), पृ. 3 तथा 28 । 22 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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