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________________ २०८] जंबूदीवपण्णत्ती [११. २१८ एक्कत्तीस पडलाई वत्तीसं चेय सयसहस्साई । ताई तु विमाणाई हवंति सोहम्मकप्पस्स ॥ २१८ मझिमयम्मि विमाणे मसारगलम्मि मणहरालोए । मज्झम्मि रयणचित्ता सोहम्मसहा विमाणं च ।। २१९ बत्तीससयसहस्साण सामिओ दिव्ववरविमाणाणं । तेलोक्कपायडभडो' जत्थ सुरिंदो सयं वसइ ।। २२० सो भुंजह सोहम्म सयल समंतेग तिहुयणेण समं । बहुविहपावविहम्मो सद्धम्मो सोहणो जस्स ।। २२१ गिस्वदजठरकोमल अदिसयवररूवसत्तिसंपण्णो । तरुणाइच्चसमाणो समचदुरंसेण ठाणेण || २२२ कह कीरह से उवमा अंगाणं तस्स सुरवरिंदस्स । जस्स दु अगतरून रूवम्मि अगोवमा कंती ॥ २२३ वरमउडकुंडलहरो उत्तममणिरयणपवरपालंबो। केऊरकडयसुत्तयवरहारविहुसियसरीरो ॥ २२४ 'तत्तो दु विमाणादो गंतूण जोयणा असंखेज्जा । तो होदि पभविमाणं पभमंडलमंडियं दिव्वं ॥ २२५ तत्थ पम्मि विमाणे'' पभंकरा णाम रायवाणी से । अमराव इंदपुरी सोहम्मपुरी य से णामं ॥ २२६ तीए पुण मझदेसे भासुररूवा सभा सुधम्म ति। तीए वि मजसदेसे खरगं किर उत्तमसिरीयं ॥ २२७ हैं ।। २१७ ॥ इकतीस पटल और वे बत्तीस लाख विमान सौधर्म कल्पके हैं ॥ २१८ ॥ मनोहर आलोकवाले मध्यम मसारगल्ल विमानमें रत्नोंसे चित्रित सौधर्मसभा व विमान है, जिसमें बत्तीस लाख उत्तम दिव्य विमानोंका स्वामी व तीन लोकोंका प्रगट सुभट स्वयं सौधर्म सुरेन्द्र निवास करता है ॥ २१९-२२० ॥ वह सौधर्म इन्द्र, जिसके कि पासमें बहुत प्रकारके पापोंका विघातक शोभायमान उत्तम धर्म विद्यमान है, समस्त सौधर्म कल्पको त्रिभुवनके समान सब ओरसे पालता है ।। २२१ ।। उक्त इन्द्र अपघात रहित उदरसे संयुक्त, अत्यन्त सुन्दर रूप व शक्तिसे सम्पन्न, तरुण सूर्यके समान तेजस्वी और समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त है ॥ २२२ ।। उस सुरेन्द्र के अंगोंकी उपमा कैसे की जा सकती है जिसके अनन्त सौन्दर्यवाले रूपमें अनुपम कान्ति विद्यमान है ।। २२३ ॥ वह उत्तम मुकुट व कुण्डलोंको धारण करनेवाला, उत्तम मणियों व रत्नोंके श्रेष्ठ प्रालम्ब ( गलेका आभूषण ) से युक्त तथा केयूर, कटक, मूत्र व उत्तम हारसे विभूषित शरीरसे संयुक्त है॥ २२४ ॥ उस विमानसे असंख्यात योजन जाकर प्रभामण्डलसे मण्डित दिव्य प्रभ विमान स्थित है ।। २२५ ॥ उस प्रभ विमानमें प्रभंकरा नामकी राजधानी है। उसका नाम अमरावती, इन्द्रपुरी व सौधर्मपुरी भी है ॥ २२६ ॥ उसके मध्य देशमें भास्वर रूपवाली सुधर्मा नामकी सभा है । उसके भी मध्य देशमें उत्तम श्रीसे संयुक्त १ उ श बत्तीस पडलाइं. २ ब श विमाणए. ३ क ब मज्झिम्मि. ४ उ क तेलोक्कपयाडभडो, तेलोकपायडतडे, श तेलोकपायडभेडो. ५ उ श सइं. ६ क समत्तेण. ७ क श पावविधम्मो सोधम्मो, व पावविहम्मो सोधम्मो. ८ क अंगागं. ९ क परपालंबो, शपवरवालवो. १० उपभमंडयमंडियं दिव्वं,क पभमंडलणिम्मलं दिव्वं, ब यसमंडलणिम्मलं दिव्वं. ११ उ श विमाणं. १२ उ रायवाणी सो, श रायधणी से. १३ उ खग्नं किर उत्तमसिरीरां, क खग्गं किरणुत्तमसिरीयं, बखग्गकिरणुत्तमसिरीय, श खग्रं किर उत्तमसिरीएं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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