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अमरसेणचरिउ विणि वि णिय पउमिणि विसय-सत्त । सुहु-दुहु कियकम्में हुंति भक्त ॥१४॥ जं णिच्चल-मई तवयरण होई । भुजइ सुर-संपइ सुरहलोइ ।।१५।। पुणु णरपउ पाइ वि तउ करेहि । किय कम्महणि वि सिवपउ लहेइ ।।१६।।
घत्ता एकइ हयगयघड, कीडहिं चडि धरा, रह झंपाण जाण-चडहिं । सुक्किय अइपुण्णह, भडधयधण्णह, अग्गइ धावेहि विविह भत्तीहि ।।१-१३।।
[१-१४] सावयकुलि कहम वि लह वि जम्मु । जइ जीव न पालिसि जिणहं धम्मु ।।१।। जिम जिम भवभमिणिहि लहसि दुक्ख । तिम तिम पच्छतावइ पडिसि मुक्ख२ पाच्छइ पच्छतावइ कवण काजु । ते फसइ (ण) जे तू करिसु आजु ।।३।। गइपाणी पहलउ पालिबंधु । गइसप्पहि पीढइ लोह अंधु ।।४।। जिणि सुक्खि अणंतर दुक्ख होइ । ते सुक्ख धरि ज्यो हियइ कोइ ।।५।। अइमिट्ट सरिस आहारअंति । तत्काल वमणु जिमते लसंति ।।६।। संसार म जाणिसि जीव सुक्ख । मधुविदु सरिस गिरिमेरु दुक्ख ।।७।। सुरनरतिरियादिक गति मझारि । सहियाजि दुक्ख ते तउ संभारि ।।८|| ईसा-विसाय-मय-कोह-माणु ।चितंतु चवण देवहं विमाणु ।।९।। सइ खंडहि हियडउ फुट्टजंत । जइ सत्तधाउ संघडिउ हुन्त ॥१०॥ छम्मास चवणु पुणु चित होइ । जं दुक्ख न सक्कइ कहमि कोइ ।।११॥ इक्क इक्क तीइ अवहर विलंति । एइ सेविकण्ह राजो रहंति ॥१२॥ मणु अत्तणि खयखसखासरोग । पियमायपुत्तबंधव-विजोग ॥१३।। वह-वंधण-ताडणमसि हणाय । दालिद्द-दुक्ख परिभव घणाय ॥१४॥
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