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________________ २५८ अमरसेणचरिउ पायड भई ॥ ॥ तहु लितहं जंपइ सिवि वण्णइं । ता नायकण्ण सु पयच्छ णीउ सव्वई हियहु । इहु कंजु वि अण्णहु देहि तुहुं ॥ ६ ॥ ता तें आणि वि सेट्ठि वणि । देष्पिणु वित्तंतु उत्तु खणि ॥७॥ वणवण पुणु रायहो कहिउ । पहुणा पुणु मुणि चिंतित्र सुहिउ ||८|| गोवाल सत्थि संजुत्तु पहु । गउ सहसकूड - जिण-भवण लहु ॥९॥ जिणु अहिंसिचि वि वंदे वि मुणि । महिवइणा पुच्छिउ भव्वु-गुणि ॥१०॥ सव्वहं उविकटुउ को भुवणि । जिणनाहु णिरूविउ तेण जणि ॥११॥ ता ठिउ गोवउ जिणणाह-पुरउ । भासह धारेष्पिणु महि सिरु-धरिउ ॥ १२॥ भो सम्वुविकट्ठ इमं कमलं । मई दिष्णु गिहाणाह विमलं ॥ १३ ॥ घत्ता इय भणि वि देव उपरि णिहिवि, गउ सकज्जि गोवउ सगुणु । तम्हाउ मरि वि करकंडु-पहु, हूवउ भत्तिए Jain Education International - जिणु ॥ ७८ ॥ [ ७-९ ] रु-णारी अवरु जि पहु करेइ । जिण चच्चहि हिय-भावण धरेइ ॥१॥ वहु सुर र सुक्खड़ तं लहेइ । पुणु सिवउरि थाणें सिद्ध होई ॥२॥ यउ सुणि वि णराहिव देवसेणि । मुणि वंदिउ आणंदेण तेणि ॥ ३ ॥ जिण पूया - विहि गिव्हिय खणेण । गउ जिय घरि णरवइ उच्छवेण ॥४॥ तत्थाइ मुणीसरु विण्णि राय । विहडिय भव्वयणहं वोहणाय ॥५॥ जिण णाहइ ईरिउ लविउ धम्मु । संवोहिय भव्वई वि गच्छम् ॥ ६ ॥ मुणि अहि-जाणि वि तुच्छ आउ । अइ-खोणंग वि सु-सुरूव साउ ॥७॥ मह विहरहि भाय विरहिय- माय । तउ करहि निरंतर वम्म धाय ॥८॥ पुणु गिरि - सिरि थक्क विगय-सल्ल । मेरुव्व-धीर सरहरण मल्ल ॥९॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002769
Book TitleAmarsenchariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1991
Total Pages300
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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