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सप्तम परिच्छेद
सन्धि-७
ध्रुवक
सेणिय गय-मलु,
जिहं भूसणु वणिवइ सुएण ।
पुणु - जिण-पूण फल,
लद्धउ तं भासमि, समउ पयासमि, एयगे वज्जियर
एण ॥ १ ॥
रामायणे एह पसिद्ध अस्थि । अक्खमि पसंग वसु दोस णत्थि ॥१॥ रावणहं हणेष्पिणु सोय लेवि । लंका वि विहीसण णिवहु देवि ॥२॥ जइया उज्झाउरि रामु आउ । तइया भरहहु जायउ विराउ ॥३॥ राहहु भण्णइ महु मेलि णाह । हउं एत्तिउ ठिउ तव तणइ-गाह ॥४॥ हउं पुणु दिक्ख लेमि जिण-केरो । खमि खमि सामि भवहु विवरेरी ॥५॥ आसिकालि भइ विहिउ अनुग्गहु । सवणहं अग्गें कारेविणु गहु ॥६॥ जं जणणें मोहें पडिवण्णउं । तउ वणवासु रज्जु महु दिण्णउ ॥७॥ इह अविणउं मरिण ण भुल्लइ | अहवा तिव्व भवेणउ सल्लइ ॥८॥ ता रामें पउत्तु अज्जु जि तुहुं । उज्झाउरि पहु सिरि-भुजहि सुहं ॥९॥ एयच्छत्त परिपालि- वसुंधर । किंकर सयल राय-भू-खेयर ॥ १०॥ इय वयहि ठिउ मणेण विरत्तउ । ता रामें जुवइउ आणत्तउ ॥ ११ ॥ जा ई-मुह पजाय विसरवरि । भरहु सराउ करि वि आवहु घरि ॥ १२ ॥ पडिवण्णउ तं ताहि सुहायरु । सहु भरहें णरिउ गय सरवरु ॥१३॥ जल - कोलहि ठिउ अपलु अभंगउ । दोदह-अणुवेहा चितंतउ ॥१४॥ हावभाव विभमणउ चलियउ । कह कणयालुअ सिहिणंउ चलियउ || १५॥
तं
घत्ता
तिय-वयणुण पेच्छइ जा सरि अच्छा, ताम तिजयभूसणु जि करि ।
आलाणु- उम्मूलि वि, घर-सय-चूरि वि सो दलंतु महि आउ
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सरि ॥ ७-९ ॥
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