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अमरसेणचरिउ संभासणु विहि अण्णोण्ण सिट्ठ । विण्णि वि संजाया परम-इट्ठ ॥७॥ मणिसेहरेण तासु जि पउत्तु । को तुहुँ कहि आयउ कासु पुत्तु ॥८॥ तुह-उप्परि वढइ भूरि णेहु । खयरेसु चवइ ता वज्जगेहु ॥९॥ खग्गगिरि-दाहिण-सेढि रम्भु । जयवम्म राउणं परमधम्मु ॥१०॥ विणयादेवी पिय हउ जि पुत्तु । घणवाहणु णामें वलणि उत्तु ॥११॥
घत्ता महु देप्पिणु णिव-सिरि, राणउ गउ गिरि,
दो विह तउ-पंथम्मि थिउ । मइ पुणुस पयावें, कय खउ-भावे,
खग्गे खेय-चक्कु जिउ ॥६-५॥
[६-६] णिय इच्छाइ गयणु-विहरंतउ। णह-जाणहो खलणे इह पत्तउ ॥१॥ तुहं दिट्ठउ पइ-पुच्छिउ वइयरु । भासिउ णिरइसेसु मइ हिययरु ॥२॥ तुहं पुणु णिय वित्तं तु पयासहि । जगणि-जणणु-पुरणामुन्भासहि ॥३॥ सो चवेइ इय मणिसंचयपुरि । पहु पविसेणु जिणिय संगरि अरि ॥४॥ गंदणु हउं मणिसेहरु जायउ । वणकोला-कारणि इह आयउ ॥५॥ दोहिमि अइ-मित्तत्तणु वढिउ । परसप्पर-णेहेण रसढिउ ॥६॥ मेरु-जिणालय-वंदण-इच्छा ।महु मणि अहणिसु होइ सुणिच्छा ॥७॥ घणवाहणु जंपहि णह-जोहिं । चडु वेयं महु सुच्छ विमाहिं ॥८॥ तं णिसुणि वि अक्खइ मणिसेहरु । णिय विमाणु जइ होइ सुहायरु ॥९॥ तेणारुहि वि जिणालइ-वंदमि । पर किय णह-जाणहि णाणंदमि ॥१०॥
घत्ता तातें तह मंतो, दिण्ण महंतो, आराहिउ मणिसेहरेण। विज्जागणु-सिद्धउ, भुवणि पसिद्धउ, किउ विमाणु सोहणु खणेण ॥६-६॥
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