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षष्ठम परिच्छेद
सन्धि - ६
ध्रुवक
एवह सुणि साहु, अरि-गय-वाहु,
महणा-दण-अण्ण
जिणवर - पूयहं फलु, भउ भेउ जिसु,
कहा ।
तं देवराज- चउधरि-हियसुका ॥ छ ॥
[ ६-१ ]
जिण अच्चणाई इय भावणाई | मण इच्छिय सुर-पउ-पावणाई ॥१॥ दरुव साउ काय वि विराउ । जि मण-वय विकाउ जि कियउ-भाउ ॥२॥
हुउ सग्गि देउ सुरणियर सेउ । मंडूय- केउ
समसरणि पत्तु भत्तिए णमंतु । सम्मई मगहाहिवेण पिच्छे विइंदु पुच्छिउ वुद्धिय-अमंदु मंडूय केउ । कि जाउ देउ गुण-गण- णिकेउ ||६|| म कहि भेउ गणि कहइ तासु । [ कहइ कवि सुणि] संसयम-णासु ॥७॥ इह तउ पुरीहि अरि-भय- हरीहि । तहि भूरि वित्तु वणि णायदत्तु ॥८॥ तहो गुण-मणोज्ज भयदत्त-भज्ज । कय अट्टझाणु वणि चत्त-पाणु ॥९॥ यि घरस-पासि वावी पएसि । जलि रमिय काउ मंडूय- जाउ ॥ १० ॥ घत्ता
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अच्छर - समेउ ||३||
गुण- गण - थुवंतु ॥४॥ गणादि ॥५॥
कियंतु
हुउ जाई सरणउं, मण दुहय रणउं,
सो ददुरु सेठिणि णिय वि । सम्मु-हुउ-धावइ, सिरि-पउ दावइ,
आरडोई अंचलु धरि वि ॥ ६-९ ॥
[ ६-२ ]
जइया-जइया सेट्टिणि आवइ । तइया- तइया सम्मुहुं तहु भएण जल-कज्जण गच्छइ । अहणिसु चितंती मणि अच्छइ ||२॥
धाव ॥१॥
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