________________
२१८
अमरसेणचरिउ
णिय परियण- पुरयण संजुत्तउ । गउ मुणिवर- वंदण णय भत्तउ ॥ १४ ॥
धत्ता
मुणि वंदिउ रायह, मण-वय- कार्याह,
कहि मुणि धम्भु हम्म-हियउ । तं सुणिवउ मुणि, पभणई पहु सुणि, सम्मर्दसणु
[ ५-२१ ]
ध्रुवक
पणवीसह दोसह, पमणिय सत्यह वज्जिउ
दंसणु वज्जरिउ । तहि तं तहि वोहिउ, चरिउ वि सोहिउ
असुह-हउ ॥५- २०॥
"
Jain Education International
तें विणु णत्थि णाणु-चरिउ ॥ छ ॥
णिय भाव एहि ॥२॥
मणि - णाअवज्जु ॥३॥
पुवें जिण- ईरिउ जिण -हरेहि । गणहरहं कहिउ मुणिवरहं तेहि ॥१॥ मुणिवरह कहिउ वुह सावयेहिं । तेहिं त्रिभाविउ तें सम्मदंसणु पुज्जणिज्जु । पाहाणहं जिहं गय रूव विरूई तेण जुत्तु । धण रहिउ वि सो महि पूरि- वित्तु ॥४॥ forefro किरिया तव वयढ्दु । वुह अग्गेसरु पुणु होइ मूढु ॥५॥ पिय-वज्जिय जिह कुल जुवइ सिट्ठ । कुल-तिय-विणु जिह घर विट्ठि गट्ठ ॥६॥ तहं सम्मतुज्झिय दाण- पूय । उववास-पमुह सयलाविरूव ॥७॥ तं कारणेव जिया - फलु इय कास जाउ । तं पढमु भणमि इह जंबूदीउ सुरदिसि विदेह । वर अज्जखंडे णह लग्ग - रोहिं ॥१०॥ कच्छावइदेसहि पुरि सुसोम । णं विहिणा णिम्मिय सोक्खसीम ॥११॥ वरदत्तु णाउं पुह-ईसु तित्थु | चक्के भूमि मंडिउ पसत्थु ॥१२॥ अहं दिणि सो वणवालएण | विष्णत्तु कुसुम - फल - करभ- एण ॥१३॥ सिवघोसु णामु तित्थयरु णाहु | समवसरण - सिरि- सोहि अवाहु ॥१४॥
सम्मत्तु-पुष्व । भव्वयणहं अक्खमि ताइं सव्व ॥ ८ ॥
हय - दुरिय-भाउ ॥ ९ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org