________________
१९८
अमरसेणचरिउ कहि सामिय अम्हहि पुव्व-भवंतर। हिय संदेह हमि[मेटहु] मुणिवर ॥१०॥ तं सुणे वि अक्खइ संसयहरु । सुणहु राय अक्खउ तुम्ह दुहहरु ॥११॥ इह जंवूदीवह भरहखित्तु । लवणोदधि मंडिउ वर पवित्तु ॥१२॥
हिं गयरइ संति मणोहराई । धण-कण-कंचण-संपइ-हराई ॥१३।। इह लोय-पसिद्धउ पुर-वरिछु । उसम्भपुरु णामें तं वि सुठु ॥१४॥
घत्ता तहं पुरउ-पहाणउ, विणय सहाणउ,
अरि-मद्दणु गामें पयउ। देवलदे भामिणि, णं सुर-कामिणि,
पट्ट धरणि, गरवइ-विमलु ॥५-९॥
[५-१०] णिय सुविह-मंति मंतत्थ-जाणु । णिय सेवय-पुरयण महि पहाणु ॥१॥ तहं अभयंकरु णामें विवहारी। णिवसइ रिद्धि-सहइ विवहारी ॥२॥ तं भामिणि कुसलावतिय सुच्छ । जिणधम्मासत्तिय चत्त-मिच्छ ॥३॥ तं गिहि वे अच्छहि कम्मकरा । धणकरु-पुण्णंकरु भाय वरा ॥४॥ गरुवउ घर-कम्मु करेइ तहिं । लहुवउ धणु-रक्खइ उववणेहि ॥५॥ अभयंकर-सेट्टिहिं अहव-भत्त । सुहि अच्छहि वणिवर गिह सचित्त ॥६॥ अहो पुण्णहं अंतर जगि हवेइ । सुर-णर-णिद-सिवपउ लहेइ ॥७॥ पावह फल अंतर भाय जोइ । मर घर-कम्मेरउ दुहिउ होइ ॥८॥ यउ चिंतहि विण्णि वि भाय तहिं । अम्हइ णिय णय कम्मरहिं ।।९।। संसार-भवंवुहि पडिउ जीउ । णीसरइ ण विणु जिणधम्म-कीउ ॥१०॥ यउ चिंति वि जिणवरःधम्म-भत्त । अच्छहि सुहज्झाणे लोण-चित्त ॥११॥ णउ वहह सत्तुह कहह तहिं । को रंति केर विवहारियाहि ॥१२॥ अण्णहि दिणि जाइय साहु तहिं । विण्णि वि जिणधम्मह जोइ तहि ॥१३॥ किज्जइ उवयारु वि इणि सुहिउ । णित्थरहि असुह किउ कम्मुरउ ॥१४॥ तहं हाणु कुणिउं वे बंधर्वहिं । रहिराविय वत्थई धवल तेहिं ॥१५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org