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अमरसेणचरिउ एकाक्षरं स्वभावेन गुणा शिष्यं निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद्रव्यं यद्दत्तान्विरणी भवेत् ॥ २॥ वइणेएं णिसुणिय एह वत्त । अइएण वि जायउ हरिसचित्त ॥१०॥ एं भासिउ एयह अखरु वि देइ । सो इच्छु वि मणुयह गुरु हवेइ ॥११॥ वत्तीसक्खर सिक्खिय मणि? । इहु जायउ मज्झु वि परम इट्ट ॥१२॥ पयवडि वि विसज्जिउ जाहि कत्थ । तुहु मझु गुरु वि संजाउ इत्थ ॥१३॥ गुरु-मारणेण महपाउ होउ। पावेण वि णरएं वसइ सोइ ॥१४॥
पत्ता दाणेण वि एयस लोय वरु, तहु जीविउ उव्वरि यउ। गउ आयासें सवण गुरु, णउ वि धरणिहिं तुरियउ ॥ ३-१२ ॥
[३-१३ ] हो लोयह थी भेउ ण दिज्जइ । थी भेएं दुहरासिहि खिज्जइ ॥१॥ चारुयत्तु वहु आवय पत्तउ । धणु खाइ वि परदेस वि पत्तउ ॥२॥ जसहरु गल कंदलहि वियारिउ । पुणु विस-लड्डुय देविणु मारिउ ॥३॥ गोवईयइ चोरहु आलिंगणु । दिण्णउ अहरुल्लउ खंडिउ पुणु ॥४॥ रत्तादेविए पंगुल णिमित्तु । पिउ तं ति वेढि सरिदहि णिहित्तु ॥५॥ जोइय-कारणि राणी सुरेण । पिउ मारिवि अग्गिहि खविय देह ॥६॥ अवराह चरित्तई को गणई । सो मूढउ जो कलणा कुणई ॥७॥ वीखइय पमुह अवराइ-जाय । ते इह को भणइ हो वि राय ॥८॥
घत्ता
इय जाणिवि, मण माणे वि, संसउ मणहिण किज्जइ । हो सेणिय, अरिचिडसेणिय, णउत्थीयहि पत्तिज्जइ ॥ ३-१३ ॥
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