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अमरसेणचरिउ वइसेणे चितिउ णिय मणेण । जं कोर-कीरि सुउ करउ तेण ॥८॥ पच्छण्णु जाइ तहं अंवफलु । निग्गिलिउ सुहंकर रोडहलु ॥९॥ मुहु धोवइ अंवुह मुहु भरेइ । राडेइ करूडा महि णिएइ ॥१०॥ जो रूवि कामावेसु लोइ । सय पंच रयण तहं पडिय वेइ ॥११॥ तहं पर तउ पूरिउ कीरि कहिउ । णिय अंचल वंधि पच्छण्णु किउ ॥१२॥ णउ गरुवहं भायहं भेउ दिउ । इव जोवउ गरुवहं फलहं भेउ ॥१३॥
घत्ता
तहं विण्णि वि भायर, गुणरयणायर, एहाणु करेविणु सुच्छजलि। णिग्गय सर मझिहि, निम्मल चिहि, सुहि जुणिक्क दयालहिं ॥२-१३॥
इय महाराय सिरि अमरसेण चरिए।
चउवग्ग सुकहकहामयरसेण संभरिए। सिरि चउधरियइए विरइए।
साधु महणा-सुय चउधरी देवराज णामंकिए। सिरि अमरसेण-वइरसेण-उप्पत्ति,
वालकोला-विज्जाभासविए। संगमणं वण्णणं णाम दुइज्जमं परिच्छेयं सम्मत्तं ॥संधि॥२॥छ॥ यावत् सव्वज्ञ-वाणी, णिवसति भुवने, शैलराजश्च यावत्, यावत् गंगा-तरंगा, वहति भुवितले, शेषनागश्च यावत् । धत्ते क्षोणीश्चभारं उदधि गडुडडत्, हेल कल्लोलमाला, तावत् तु पुत्र-पौत्रः सहित सुतसुखः नंदतो देवराजः ॥
॥ आशादिः ॥१॥
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