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अमरसेणचरिउ
रत्ता देविए पंगु निमित्तु । तं तिय वेढि वि णिउसु दहि धित्तु ॥ ९ ॥
घत्ता
मणुवह मण-मोहणि, सुगइ - णिरोहणि, दुच्चारणि णी एहि रया । हंधण राहं, तं रत्ताहं, कि ण करहि रइ-लुद्ध धुय ॥२- १०॥ उक्तं च
गंगा वालुयंमि सायरजलहं नैव परिमाणं ।
जाणंति वुद्धिवंता, महिलाचरियं न जानंति ॥ छ ॥
[ २-११ ]
इयतं सुणे वि लहु बंधवेहि । हंमहं उवयारणि प्रेम एहिं ॥१॥ सावत्तिय मार्यार होइ सुहि । जं एव पसार्याहं जुहं महि ||२|| पुर-पट्टण दीसह गाम जणि । वंदेसहि जिणु गुरु झुणहि सुणि ॥३॥ पिच्छिज्जइ बहु विहु चरिउ महि । दुज्जण सज्जण किउ मुर्णाहं तहिं ॥४॥ तहं काल विडंबिय रयणि तत्थ | तरु दुण्णिहु द्दिस माय सुत्थ ||५|| वइसेणु पहरुवा भयउ रक्ख । इत्थंतरि सहकारेहिं विवख ॥ ६ ॥ जवखु विजविखणिते वसहि सार । सुह कोर रूवि णिज्जि जिय मार ॥७॥ कीडा निमित्त ते भाय विट्ट | भइ रूवत सोहग्ग इट्ठ ता कोरि-पिया णिय कीरु वृत्त । ए गरुव- मणुव जुइराय इणि किज्जइ बहु विह भत्ति तत्तु ।
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जुत्त ॥९॥
॥१०॥
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धम्म - काजि पिय सुगय हेय । संपज्जइ सुर-१र-पउ तहे ॥११॥ पंक्खिहि सुभाउ धम्मत्थ हूउ । अतित्थिहि करि पिय दाण-हेउ || १२ | तं णिणि कीरु सुणि कोरि पिए । उ अत्थि दव्वु हम पास धुए ॥१३॥ उवयार करउ हउ इष्णु भव्वु । विणु दव्वें कोइ न करइ गव्व ॥ १४ ॥ उवयारें उवयारु करंहं । सव्वई कोइ करइ भिंतह ॥ १५॥ जं किज्जइ तं अवगुणु करेइ । तं विरलउ जणणी जणई लोइ ॥ १६ ॥ अतिथिह परवादी णिच्चएण । विण्णि वि वंधव अच्छहु सुहेण ॥ १७ ॥ |
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