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भासा-भेइयं जाणियई
गुरु दावियाई जे परम जाणिवमर- वइरें
अमर सेणचरिउ
तक्कु । जिहं भमहि गयणि पुणु गहहं चक्कु ॥ ३ सच्च । छह-दव्वई पच्छइ सत्त तच्च ॥४॥ तिणि वरण | धम्मत्य-काम वे णय समग्ग ||५|| संजोय-जंत ॥६॥
आयम- सत्यङ्कं मणि मंत-तंत | भेसह अउठन गंध-गेय वर डुभे । ह्य-गय-वाहण-विहि पुणु अणेय ॥७॥ एमाइ सवल बिज्जाहं कोसु । सिक्खि वि आयउ गिहि विजय दोसु ॥८ वढह ससि वी-कलाइ वे वि । णिव सुयहं पुरयण इट्ट ते वि ||९|| हुव जोव्वणग- सिरि- संपुण्ण-गत्त । वहु कल - विण्णाणइ सिक्खि तत्त ॥ १०॥ णिय रूवं जित्तउ मयणराउ । जिम जिण धम्मोपरि सुद्ध भाउ ॥ ११ ॥ सुहि हरि - विट्ठि वि तहु कुमार । वणकीर्लाहिं णं सुहि म [ अ ] हिकुमार ॥१२ पहु पुरयणु रंजहि अमियवाणि । खिव रज्जु-धुरंधर सुक्खखाणि ॥ १३ ॥
घत्ता
तहं विष्णि वि भायर, गुण- रयणायर, अमर सेणि- वइसेणि वल । दिन-दिन पिय-जणणिह, वंदहिं पय तह, सत्यहं विष्णवि कुसल ॥२-४॥ यत ॥ सैसवेभ्यस्त विद्याणं, जौवने विषईवणं ।
वर्द्धन [[न] वर्ती [वृत्ति ] नां योगिनां ते तनुत्यजां ॥ १ ॥ विद्या [विद्व] त्वं च नृपत्वं च नैवतुल्यं कदाचि (च) नः,
स्वदेसे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूजयेत् ( पूज्यते) ॥२॥ || गाहा || जब जोठवण अइरूवं, विष्णि वि कंदप्प समउ विहि रइयं । पमिणि मणिहियहारा, णिम्माविया वे विहि कुमर ||३||
[ २-५ ]
णिय विष्णाणें रंजेहि लोय । सुहि अच्छहि विणि वि अरि- अजेय ॥१॥ एत्यंतरिणिय माय सवितििहं । णखइ-पाण-पियारी- पत्तिह
॥२॥
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