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द्वितीय परिच्छेद
[२-१]
ध्रुवक
हो सेणिय अरि वि डसेणिय, अग्गइ अण्णु वि भासमि । जिहं विणि वि राय सुय, अइ लंवियभुय, हुय तिह संसउ णासमि ॥छ॥ मण-वयण-काय करि सुद्ध भाउ । विउ पुण्णु सुहंकरु असुह-घाउ ॥१॥ तो जाइ वि विवहारिय वुत्तउ । भोयणु करहु वत्थ किउ जुत्तउ ॥२॥ जं दिण्णउ तुमि मुणिवरिय दाणु । तुम्हहं सरि अण्णु ण कोइ जाणु ॥३॥ ते अक्खहि णिसुहिं सेठ्ठि भव्य । णउ भुजहि भोयणु अम्ह-इव्व ॥४॥ हमि सयलं वप्प-संतोसु जाउ । णउ भावइ अम्हहं असण-भाउ ॥५॥ तं सुणि वि सेठ्ठि जंपइ तुरंतु । साहम्मिय-वच्छलु करहि तत्तु ॥६॥ जइ एवहिं असणत्थेण मित्त । तउ भुंजहि भोयणु रहस-चित्तु ॥७॥ तं सुणि वि भणहि वे भाय जुत्तु । णिय भुयह उप्पायउ चरु णिरुत्तु ॥८॥ गउ कहच्छंडिज्जइ वउ वि जुत्तु । जो वयणें वोलिज्जइ पवित्तु ॥९॥ इव चउविह असणहं अम्ह णेमु । सूरग्गमि भोयणु करहि खेमु ॥१०॥ तिणि वयणु सुणेप्पिणु सेट्ठि सुठु । कम्मारयाहं किउ विणउ सुछ ॥११॥ जंच्छट्टिहिं रत्तिहि विहि लिहिऊ । तं मत्थई अक्खर-माल थिउ ॥१२॥ देवेहि लिहायाउ विहि लिहिऊ । तं फेडण कुइ ण समत्थु हुउ ॥१३॥ जइ आरोहइ गिरि-सिहरि जीउ । उहि लंघि पयालहं जाइ भोउ ॥१४॥ विहि लिहियइ अक्खरमाल-करि । तं फलइ गरहु सुरणाय सिरि ॥१५॥ कहमरणवत्थच्छट्टइ ण जोउ । जइ जाइ विएसह जमह-भीउ ॥१६॥ जहं कायकलेवरच्छाह सरि । तं लग्गउ भइ [वि] सरीर परि ॥१७॥
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