________________
अमरसेणचरिउ
उ लेहि साहु-परदव्वु तेण । आराहहि जिणु नियथिर मणेण ॥ १०॥ तं सुणि विवहारी ओसु जाउ । ए भव्वई जिण मण- सुद्धभाउ || ११|| मण वयण काय परत्थ-चत्त । णित्थरहि भहि वेइ भत्त ||१२|| यि जयवर पासह विणि-भाय । जिण धम्मुप्परि जिणि चित्तु लाय ॥ १३ ॥ उक्तं च ॥ वहुमाणो बंदणयं, गुण-थुइ लहु उवसग्ग-निगोहणं । उवयारदाणमेवय, गुरुया पंचविहा होइ ॥ १ ॥
पुणु पुणु विवहारिय पर्णाम गुरु । पुणु मुणिवर ए दो भाव रुि ॥ २४ ॥ उ पुज्जहि जिणवरु मज्झु दव्वु । तं कारणु वुज्झहि साहु भन्नु ॥ १५ ॥ तं णिणि भणइ गुरु अमियवाणि । तइ णाण- सजुत्तउ सोलखाणि ॥ १६ ॥ भो कम्मकर जिणणाह पूय ।
॥१७॥
९८
तुनि किण्ण करहु दुग्गई हरीय । जें सुर-णर-फणिपउ लहहि जीय ॥ १८ ॥ तं णिसुणि वि धणकर- पुण्णकरु | अक्ख हि परिउत्तरु सुन्छु रुि ॥ १९ ॥ यि दव्वहं कुसुमइ हंमि लेहिं | अंचहि जिणसामि उं थुइ कहि ॥ २० ॥ तं णिणि भणइ जइ किचि दव्वु । जइ अत्थि तुम्ह पहि करहु भव्व ॥ २१ ॥
धत्ता
इक्कइ कम्मकर, भणिउ महुर गिर, महुप हि कउडी पंच
तं मोलहिं किं लबभइ तहि,
कुसुम अमोल्लइ मुणि सुमई ॥१-२१ ॥
.
॥ गुरुक्तं ॥ यतः ॥ जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दाने मनागपि । प्रान्ने सास्त्रे स्वयं जांति, विस्तारव सुसक्तितः ॥
जई ।
॥ उक्तं च ॥ यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीणः, स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणा कांचनमाश्रयंति ॥ छ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org