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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान स्तोत्र का अनुवाद: १-२.हजार नेत्रोंवाला इन्द्र भी जगत के एक मात्र स्वामी ऐसे इन दोनों तीर्थंकरों के गुणों का पार देखने में सक्षम (समर्थ)नहीं है। देवों के गुरु वाचस्पति आदि भी जिनके अशेष गुणों को कहने के लिए समर्थ नहीं है। मैं अल्पबुद्धि, जड़ बुद्धिवाला उनके असीम, निर्मल, असाधारण, सम्पूर्ण गुणों की स्तुति करने में कैसे सक्षम हो सकता हूँ ? यह तो आपके चरण-रूपी इच्छित फल देनेवाले वृक्ष की प्राप्ति के पहले फूल हैं, भावि फल तो उसके आगे होगा। ३. राग से अपराजित पापों के प्रणाश में कुशल और देवताओं के बन्धुओं के नेत्र को आनंद देनेवाले, पूर्णिमा के चन्द्र समान ऐसे अजितनाथ भगवान को इन्द्रियपराधीन होकर जो इन्सान नमस्कार नहीं करता वह इन्सान स्पष्टरूप से लक्ष्मी से दूर होता है, तथा स्व और परको पहचान नहीं पाता।। ४. नमस्कार करते हुए देवताओं की मस्तक मालाओं के अग्रभाग पर रहे हुए श्रेष्ठ मरकत मणि जैसे भँवरों के सम्बन्ध से जिसकी शोभा होती है ऐसे अजितनाथ के दो चरण-कमल जो योगियों से वंदनीय और पवित्र हैं, उनको मैं प्रतिदिन मस्तक से वंदन करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। ५. नय-विनय से युक्त मैं भक्तिपूर्वक अपने हृदय में अजितनाथ भगवान को स्थापित करता हूँ जिस अजितनाथ भगवान को सज्जनों ने नमस्कार किया है और जो कुमति को नाश करनेवाले हैं। ६. विश्वशान्ति को देनेवाले श्रीशांतिनाथ को वंदन करता हूँ। दुर्निवार और आन्तरिक शत्रुओं का उच्छेद करने में समर्थ कल्पवृक्ष के समान शान्तिनाथ भगवान का जिन्होने शरण नहीं लिया है, वे लोग इस संसार में बहुत भ्रमण करते हैं। ७. जो इन्सान विनय और भक्ति से अजितनाथ और शान्तिनाथ को नमस्कार करता है, उसके सब रोग नष्ट हो जाते है जैसे कि:- कास, श्वास, अंगह्रास, अदशन, नखक्षय, मुखक्षय, अक्षिक्षय, ग्रंथिशोष, अतिसार, श्लेष्म, पित्त-ज्वर, पवन, कटी, कण्ठ, विष्ठाग्रह, ज्वाला (दाहरोग),वालेय, लूता, नेत्र और जठर के रोग, अपान, कुष्ठ, अंगदाह आदि। ८. जो इन्सान अजितजिन और शान्तिजिन की स्तुति करता है उसको तृष्णा, उष्णा (गर्मी), पानी का भय, मारि, द्वीपीका डर, हाथीभय, सिंह, अग्नि, सर्पभय, भूत, शाकिनि, विनायक, विष, शत्रु और क्षेत्रपाल, गोत्रपाल आदि का भय नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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