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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आँखों में अश्रु भर आये। लेकिन प्रतिरोध न कर सके। गुरुदेव को भी इस घटनाक्रम से अवगत करवा दिया गया। प्रशांतमूर्ति, करुणा के सागर गुरुदेव ने उसकी घृष्टता को क्षमा किया, पुनः ग्रंथ को लिखा और विक्रमपुर में भेजा । श्रावक पुनः ग्रंथ देखकर अति प्रसन्न हुए। देवधर ने सोचा-जरूर इस ग्रंथ में विशेषता होगी। ज्योंही ग्रंथ को पढ़ा तो गहरे रस की अनुभूति हुई । उस ग्रंथ के माध्यम से देवधर का जीवनपरिवर्तन हुआ। देवधर पिता के साथ गुरुदेव के दर्शनार्थ नागोर पहुँचा और विक्रमपुर पधारने की भावभरी विनंती की। गुरुदेव ने संघ का अधिक आग्रह देखा और स्वीकृति प्रदान की। आचार्यश्री विक्रमपर पधारे। उस समय विक्रमपुर में महामारी की भयानक व्याधि फैली हुई थी। २१ लोग महाव्याधि के शिकार हो रहे थे। चारों और मृत्यु का ताण्डव मचा हुआ था । जनता त्राहि-त्राहि पुकार रही थी। यज्ञ, हवन आदि समस्त उपायों के बावजूद लाशों के ढेर लग रहे थे। नगरवासी एकत्रित होकर गुरुदेव की शरण में आये, अपनी व्यथा से गुरुदेव को अवगत कराया। नगरवासियों के दुःख से द्रवित होकर दयालु, करुणासागर गुरुदेव ने महाप्रभावक मांत्रिक स्तोत्रों की रचना की । वे स्तोत्र चमत्कार करने में सक्षम थे। गुरुदेव ने मंत्र प्रभाव से रोग का शमन किया। नगर में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो गया। गुरुदेव की करुणा ने सभी को अभयदान दिया। गुरुदेव ने लोगों को जिनशासन का मर्म समझाया। दिव्यदेशना से प्रभावित होकर अनेक आत्माओं ने संसार से विरक्त होकर संयम धारण किया। पट्टावली के अनुसार-- माहेश्वरी आदि हजारों लोगों ने जैन धर्म अपनाया। उसी समय एक साथ ५०० साधु और ७०० साध्वियों ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। २२ २१. २२. खरतर पट्टावली- २- पैरे.- ४४, पृष्ठ- २७ (क) खरतर पट्टावली-२, जिनविजयजी पैरे.- ४४, पृष्ठ- २७ (ख) संवत् १५८२ की सूरि-परम्परा प्रशस्ति में लिखा हैं : ये नाथो विक्रमाख्ये विपुल पुरवरेऽवारि मारिः प्रबोध्य । लोका माहेश्वरीयास्तदपि हि गुरूणां स्थापिता जैनधर्मे ।। तस्मिन्नेव पुरेऽक्षप्तगुणितं साधु व्रतिन्योः पृथग् । एकस्यामपि दीक्षितं समभुवन्नन्द्यां क्षणात्सोप्यथ ।। (खरतरगच्छ सूरिपरम्पराप्रशस्ति, पृष्ठ- ४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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