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________________ ५० युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान संकेत पाकर तत्काल ही उन्होंने उसी क्षेत्र में जाने का निर्णय किया । गुरु आज्ञानुसार मरुस्थल में धर्मदेशना देते हुए नागोर पधारे। जैनसमाज में उस समय आयतन और अनायतन के प्रश्न पर बड़ा मतभेद और झघड़ा खड़ा हुआ था । गुरुदेव ने मात्र इस विषय का समाधान ही नहीं किया, अपितु अपनी लेखनी के द्वारा अनेक कृतियों का निर्माण किया और इस विषय पर शास्त्रीय प्रकाश डाला। “चैत्यवंदन कुलक' जैसी आपकी कृति में आयतन-अनायतन का स्पष्ट वर्णन मिलता है।५ उक्त विषय का श्रावकों को आपने ज्ञान दिया। इस तरह जैनजगत के विवादास्पद प्रश्नों का हल करते हुए आपने भगवान महावीर के दिव्य संदेश को घर-घर पहुँचाने का काम शुरू किया। नागोर से आप अजमेर पधारें। वहां का राजा अर्णोराज आपसे अत्यंत प्रभावित हुआ। उसने जैन धर्मस्थान बनाने के लिए भूमि दान दी। १६ अजमेर से आप बागड़ देश पधारें । वहाँ बहुत लोग आपसे प्रभावित होकर जैन धर्म में दीक्षित हुए। तत् पश्चात् आप रुद्रपल्ली पधारे। रास्ते में एक श्रावक व्यन्तरपीड़ा से पीड़ित था। उसे मुक्त करने के लिये “गणधर सप्ततिका'१७ जो की आपकी विशिष्ट कृति मानी जाती है उसकी रचना की । उससे श्रावक पीडारहित हो गया। रुद्रपल्ली पहुँचने पर वहाँ भी काफी धर्मप्रभावना की तथा आपके उपदेश से अनेक अजैनों ने जैनधर्म अंगीकार किया। चैत्यवास का विरोध और विधि धर्म का प्रचार : ____ आचार्य श्री धर्म का प्रचार करते हुए बागड़ " देश में पधारे । आचार्य श्री अपने लक्ष्यमार्ग में आगे बढ़ने लगे। आचार्यश्री के धर्मप्रचार में सबसे बड़ी उपलब्धि थी चैत्यवास की कलंकित परम्परा में फँसे अशुद्ध आचारवाले जैन मुनिओं को विशुद्ध विधिमार्ग में पुनः स्थापित करना । वे अपने उपदेशों में विशुद्ध साधु जीवन की प्रकरण ४(क)देखें। (आयतन- अनायतन के विषय में देखें- चैत्यवंदन कुलक के परिचय) खर. बृहद् गुर्वावलि- पैरेग्राफ-३२, पृष्ठ-१६. देखे- प्रकरण ४(क) में गणधर सप्ततिका के बारे में। देखे-बागड़ शब्द के लिये-युगप्रधान जिनदत्तसूरि-अगरचंदजी नाहटा, पृ २८. १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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