SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान जिनवल्लभ मुनि को योग्य समझते हुए भी किसी विशेष परिस्थिति वश अभयदेवसूरि ने उन्हें आचार्य पद पर नियुक्त न कर वाचनाचार्य के रूप में स्वतंत्र विचरण करने का आदेश दे दिया। जिनवल्लभमुनि बहुत लम्बे समय तक पाटण के आसपास घूमते रहे। इसके बाद चितौड़ आये और चैत्यवासियों को निरस्त कर कई चमत्कारपूर्ण कार्य किए। चितौड़ में पार्श्वनाथ और महावीर चैत्यों की स्थापना की। तदनन्तर नागपुर और नरवर में भी विधिचैत्य स्थापित किये। मेवाड़, मालवा, मारवाड़ और बागड़ आदि प्रदेशों में इन्होने सुविहित मार्ग का खूब प्रचार किया। इनके ज्योतिष-ज्ञान और प्रवचन शक्ति की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई। धारा नरेश नरवर्म ने एक विद्वान की दी हुई समस्यापूर्ति अपने सभी पण्डितों से न होते देख, दूरवर्ती जिनवल्लभ को भेजी, जिसकी पूर्ति से नृपति बहुत प्रभावित हुए और उनके भक्त बन गए। जिनवल्लभगणि की प्रसिद्धि और प्रभाव को सुनकर श्री देवभद्राचार्य को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्राचार्य का अन्तिम वाक्य स्मरण हो आया। देवभद्राचार्य उस समय के परम प्रतिष्ठित गीतार्थ साधु और विद्वान थे। आचार्य देवभद्रसूरि ने वि.सं. ११६७ आषाढ शुक्ला छठ्ठ को चितौड़ के वीर विधि चैत्य में विधिवत् जिनवल्लभगणि को श्री अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया। ५६ और इस समय से वे जिनवल्लभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके उपदेशामृत सुनकर अनेक भव्यजन मोक्षमार्ग के पथिक बने। . जिनवल्लभसूरि इस पद पर अधिक समय तक न रह सके। अपना अन्तिम समय निकट जानकर तीन दिन का अनशन करके, पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए, वि.सं. ११६७ कार्तिक कृष्ण १२ (बारस)रात्रि के चतुर्थ प्रहर में असार संसार को त्याग कर श्री जिनवल्लभसूरि ने चतुर्थ देवलोक की यात्रा की। ५७ गणिरूप में जिनवल्लभसूरि ने दीर्घकाल तक जैनशासन की प्रभावना की। आचार्य पद को वे केवल चार मास ही विभूषित कर सके थे। चैत्यवास के प्रभाव से जैन मन्दिरों मे जो अविधि का प्रर्वतन हो गया था उसका निषेध करते हुए, विधि चैत्यों के नियमों को जिनवल्लभसूरि ने शिलोत्कीर्ण करवाया । आपके रामदेव, जिनशेखर, आचार्य जिनदत्तसूरि आदि शिष्य थे। जिनवल्लभसूरिजी अपने युग के प्रसिद्ध विद्वान थे। न्याय, दर्शन, व्याकरण आदि विषयों के ज्ञाता और साहित्यकार थे। ५६. खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि, पृ.१४ ५७. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy