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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ३३ जिनेश्वरसूरि ने कथात्मक, विवरणात्मक एवं प्रमाण विषयक अनेक ग्रंथों की रचना की है। आपके द्वारा रचित निम्न साहित्य उपलब्ध है : ( १ ) आपने हरिभद्रसूरिकृत अष्टक प्रकरण की ३३७४ श्लोक परिमाण विस्तृत टीका रची। हरिभद्रसूरिजी का यह " अष्टक प्रकरण” ८-८ श्लोकों का एक छोटा स्वतंत्र प्रकरण ऐसे ३२ प्रकरणों का संग्रहात्मक संस्कृत ग्रंथ है। इस अष्टकों में तात्त्विक, सैद्धान्तिक और आचार • विचार विषयक विचारणा है। जिनेश्वरसूरेजी को इन अष्टकों का अध्ययन मनन अच्छा लगा । इसलिये आपने अष्टकों पर संस्कृत में विस्तृत टीका सं. १०९६ में की है । (२) अष्टक प्रकरण वृत्ति के १६ वर्ष बाद “चैत्यवंदन विवरण" पर १००० श्लोक परिमाण टीका रची। जिनेश्वरसूरिने चैत्य अर्थात् प्रतिबिम्ब (मूर्ति) को वंदन करके शक्रस्तवादि विशेष सूत्र की व्याख्या करने का प्रयत्न किया है । शक्रस्तवादि का पाठ कैसे, किस तरह करना इस विषय का यहां विवरण किया गया है। 1 (३) “षट्स्थानक प्रकरण" - जिनेश्वरसूरि ने गृहस्थ के आचार-विचार को लक्ष्य में रखकर यह ग्रंथ बनाया है। इसमें श्रावक के गुणों का वर्णन किया गया है इसकी मूल 'दो गाथा उपलब्ध है। लेकिन आपश्रीके शिष्यों ने इस पर विस्तृत संस्कृत टीका रची है। - (४) पंचलिंगी प्रकरण में सम्यक्त्व के ५ लिंग अर्थात् चिह्न (लक्षण) का स्वरूप वर्णन किया गया है। जीवन में उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य इन पांच आन्तरिक भावों का विकास होता है। इसमें सम्यकत्व की चर्चा की गई है । इस कृति से ज्ञात होता है कि आचार्य जिनेश्वरसूरिने अपने अनुयायी श्रावकगण को ये उपदेश देकर कहा कि-इन पाँच मार्गो पर चलकर मुक्ति को प्राप्त करें । (५) प्रमालक्ष्म अथवा प्रमालक्षण - यह शास्त्रार्थ संग्रह स्वरूप ग्रंथ है । इस ग्रंथ में जैनदर्शन सम्मत तत्त्व की विस्तार से चर्चा की गई है, और प्रमाण ज्ञान के लक्षण का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। यह अद्वितीय ग्रंथ है। इस में आपश्री की दार्शनिक एवं न्याय परक प्रतिभा का सुचारु दर्शन होता है। (६) जिनेश्वरसूरि की कृतियों में सबसे बड़ी कृति “निर्वाणलीलावती कथा" थी । १८००० श्लोक परिमाण की यह प्राकृत महाकथा आज उपलब्ध नहीं है। उसका केवल संक्षित संस्कृत रूपान्तर प्राप्त है। इसे साहित्य संसार की एक बड़ी उपलब्धि लीलावती सार-संपा. डॉ. ह. यू. भायाणी, ला. द. ग्रंथमाला, अहमदाबाद. ३९ ३९. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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